रविवार, 5 अप्रैल 2015

यशद की खान में यशकारी प्रासाद

दुनिया में यशद की सर्वप्रथम सौगात देने वाले 'जावर' क्षेत्र की ख्‍याति श्रेष्ठियों के संघ में जिनालयों और अंत:पुर निवासिनी रानियों के संकुल में महाराणा कुंभा की पुत्री रमाबाई के प्रासादोपहार के लिए रही है। उदयपुर जिले की सराड़ा तहसील में अपनी प्राचीनतम पत्‍थर खदानों के लिए बाबरमाल और धातु खदानों के लिए जावरमाल की ख्‍याति रही है। यही जावर मध्‍यकाल में चांदी जैसा उगलने वाला रहा जहां की चंद्रमा सी चमक वाली चांदी की ख्‍याति के चर्चे अरब तक 7वीं सदी तक होते थे और व्‍यापारी विमर्श करते थे कि मेवाड़ वाले चांदी का व्‍यापार सोने के साथ करते हैं, खैर धातुओं के लिए मेवाड़ की दरीबा और आगूंचा की खाने में सदियों पहले पहचान बना चुकी थी, मगर उनको खूब छुपाकर रखा गया था...।

 चैत्र की नवरात्रा में जावर इसलिए याद आया कि इन्‍हीं दिनों में यहां रमाबाई ने दामोदरराय का मंदिर कुंड सहित बनवाकर उसकी प्रतिष्‍ठा की थी। विक्रम संवत् 1554 का वर्ष और सूर्य की तिथि सप्‍तमी थी। गणना के अनुसार यह दिन शनिवार, 11 मार्च, 1497 ईस्‍वी था। यूं तो चैत्र में वास्‍तुकर्म निषिद्ध माना जाता है किंतु यहां मिला शिलालेख एक मात्र प्रमाण है कि इस माह में भी वास्‍तु प्रतिष्‍ठा का कार्य हुआ और वह भी बहुत बड़े पैमाने पर जिसमें दूर दराज से प्रतिष्‍ठाकर्मियों को बुलाया गया और उनको सुवर्ण के तार वाले वस्‍त्र, दुकूल आदि का वितरण किया गया। जावर की प्रसिद्ध प्रशस्ति उस काल के महान्‍यायविद महेश्‍वर दशोरा ने लिखी थी जो 40 श्‍लोक वाली है। इस प्रशस्ति में रमाबाई के गुण-चरित्र आदि बारे में पर्याप्‍त जानकारियां आलंकारिक रूप में लिखी गई है, पिछले दिनों इस प्रशस्ति का संपादन सहित पूरा अनुवाद भी किया था। हालांकि यह आज खंडित हो चुकी है। वर्तमान में यह मंदिर क्षेत्र रमानाथ मंदिर और रमानाथ कुंड के नाम से ही जाना जाता है। यह वर्तमान में राज्‍य पुरातत्‍व विभाग के अधीन है।

 इतिहास में रमाबाई की ख्‍याति वल्‍लकी नामक वीणा वादिका के रूप में रही है। संयोग से इस काल की अधिकांश देवांंगनाओं की प्रतिमाओं में वीणावादिकाओं का मनोहारी चित्रण मिलता है। उसकी ख्‍याति महाराणा कुंभा (1433-68 ई.) की पुत्री होने के साथ ही गुजरात-मेवाड़ के बीच बेटी संबंध के नाते भी रही है। जूनागढ़ के मंडलीक राजा से उसका विवाह हुआ। जब मंडलीक विधर्मी हो गया तो रमाबाई मेवाड़ लौट गई और गुजरात की वैष्‍णवीय भक्त्‍िा परंपरा के फलस्‍वरूप शैवधर्मावलम्‍बी मेवाड़ में विष्‍णु मंदिरों का सिलसिला शुरू किया, इसे खासकर महिलाओं के द्वारा निर्माण का क्रम माना जा सकता है। बाद में राजपरिवारों की नारियों में विष्‍णु मंदिरों का निर्माण की परंपरा बलवती हो गई। इस काल की दामोदरराय की प्रतिमाएं चित्‍तौड़ के कुंभस्‍वा‍मी मंदिर मे देखी जा सकती है। बाद में इसी परिवार की मीराबाई ने भी वैष्‍णव भक्ति मार्ग को ही अपनाते हुए खुलकर कहा -
 
' माई, मैं लियो गोविंदो मोल, कोई कहे छाने, कोई कहे चौड़े, मैं लियो बजन्‍ता ढोल...।'
 
रमानाथ का यह मंदिर पूर्वाभिमुख है और कभी पंच मंदिरों के समूह का परिचायक रहा है। सूत्रधार मंडन के पुत्र सूत्रधार ईश्‍वर को इसके निर्माण का श्रेय है जिसने 'प्रासाद मंडनं' ग्रंथ के निर्देशों के अनुसार शिखरान्वित मंदिर का निर्माण किया...। मंदिर का विवरण फिर कभी। जय- जय।

 (आदरणीय प्रो. पुष्‍पेंद्रसिंहजी राणावत साहब का आभार, उन्‍होंने याद दिलाया कि सप्‍तमी को इस रमानाथ मंदिर की स्‍थापना तिथि है तो क्‍यों न रमाबाई का पुण्‍यस्‍मरण कर लिया जाए, मुझे प्रियवर अरविंदकुमार भी याद आ रहे हैं जिन्‍होंने यह चित्र भेजा और प्रशस्ति का पाठ भी अनुवाद के लिए भेजा था।)

गरुड स्‍तम्‍भ

विष्‍णु को गरुडध्‍वज भी कहा जाता है। भारतीय परंपरा में जिस-जिस देवता का जो-जो वाहन है, उसी से उसके ध्‍वज या चिन्‍ह की पहचान होती है। शिव वृषभध्‍वज है, ब्रह्मा हंसध्‍वज, कामदेव मकरध्‍वज, कार्तिकेय मयूरध्‍वज...। बहुत पहले जबकि पाणि‍नि का काल था, वासुदेव के नाम से ही विष्‍णु वासुदेवकों में उपास्‍य थे। यह श्रीकृष्‍ण के वसुदेव पुत्र होने का नाम था और इनके इसी नाम की उपासना पर जोर था। घोसुंडी के शिलालेख में भी यही नाम आया है मगर वहां संकर्षण के बाद में वासुदेव का स्‍मरण है। और, इस मत तथा इसके भागवतीय दर्शन का प्रसार विदेश तक हो चुका था। वहां विष्‍णु को गरुडारूढ के रूप में जाना गया था और उनके अनुयायी भागवतीय कहे जाते थे। जैसा कि हेलियोडोरस के अभिलेख से ज्ञात होता है।

यवनदूत हेलियोडोरस तक्षशिला के विदेशी शासक अंतलिकित का दूत था। उसने लगभग दूसरी सदी ईसा पूर्व में बेसनगर जिला भिलसा, विदिशा में गरुडध्‍वज बनवाकर अपनी आस्‍थाओं का परिचय दिया था। विदेशी वासुदेव के प्रचार क्षेत्रों की यात्रा करना, वहां निर्माण कार्य करवाना और अपनी ओर से स्‍थायी स्‍मृति के रूप में पाषाणबद्ध कार्य करवाना अपना कर्तव्‍य समझने लगे थे, यह परंपरा तब बौद्धों में भी थी।

अभिलेखीय प्रमाणों से विदित होता है कि इस गरुडध्‍वज के बाद वासुदेव, जो विष्‍णु के रूप में ध्‍येय-ज्ञेय हुए, को गरुडवाहन के रूप में इतनी ख्‍याति मिली कि जहां कहीं वैष्‍णव मंदिरों का निर्माण हुआ, उनके साथ गरुड भी विराजित हुए। भागवतों या वासुदेवकों में तब 'जयसंहिता' (मूल महाभारत) के पठन-पाठन की परंपरा थी। उसके उन श्‍लोकों या पदों का प्रचार लिखकर करवाया जाता था जो जीवन में ध्‍येय के रूप में आवश्‍यक थे। यथा : त्रीणि अमृत पदानि इह सुअनुष्ठितानि नयन्ति स्‍वर्गं - दम: त्‍याग: अप्रमाद:। (तुलनीय- महाभारत, गीता, धम्‍मपद) यह पंक्ति हेलियाडोर के स्‍तंभ से है।

यद्यपि यह कार्य अशोक के बाद हुआ मगर, इस दृष्टि से मायने रखता है कि इस कार्य को विदेशी लोग भारत में करवाने के इच्‍छुक थे, ग्रीक की कथाओं में तक श्रीकृष्‍ण के आख्‍यान उनके 'जय' नाम से मिलते हैं, यह पर्याय गोपालसहस्रनाम आदि में आया है। जय संहिता से ही श्रीकृष्‍ण के लीला चरितों का पता होता था, यही ग्रंथ गुप्‍तकाल तक भारतीय कथाओं का रूप होकर सामने आया और जैसा कि बाणभट्ट कहता है- उज्‍जैन में इसकी कथा को मंगलसूचक मानकर पढ़ा-पढ़ाया जाने लगा था। आज इतना ही... जय जय।

दुर्भेद्य दुर्गों की कहानी

किले हमारे अतीत के गौरव हैं। दुर्ग, द्वंद्व, गढ़, आदि भी इसके पर्याय हैं किंतु किले से मूल आशय था कि जिस जगह को कील की तरह स्थिर कर दिया गया हो अथवा जहां से नजर रखी जा सके। दुर्ग से आशय था जहां पहुंचना दुर्गम हो। गढ़ मूलत: गढने या बनाने का अर्थ देता है। यह शब्‍द पश्चिम भारत में लोकप्रिय रहा, गुजरात और सिन्‍ध से लेकर पेशावर तक गढ शब्‍द ख्‍यात रहा है। लोक में गढ़ी या गढ्ढी भी प्रचलन में रहे। 15वीं सदी मे लिखित *'राजवल्‍लभ वास्‍तुशास्‍त्रं', 'वास्‍तुमण्‍डनम्' आदि में गढ़ को ही संस्‍कृत रूप में काम में लिया गया है। दुर्ग को शक्ति का साम्राज्‍य माना गया, प्राय: राजा जो खेतपति, खत्तिय से क्षत्रिय बना है, यहां पर अपने चतुरंगिणी सैन्‍यबल को रखता, उसका नियंत्रण करता और 'खलूरिका' से उनका मुआयना करता। सैनिकों की सहायता के लिए कई शिल्पियों, कारीगरों, जिनगरों आदि सेवादारों को वैसे ही रखा जाता था जैसे कि आज सेना या पुलिस में रखा जाता है। यह सब राजाश्रयी वेतन अथवा जागीर को प्राप्‍त करते थे और अपने को 'राज' से संबद्ध मानते। यह मान्‍यता कई कथा रूपों में आज भी अनेक जातियों में प्रचलित है।

 दुर्ग मुख्‍यत: सुरक्षा की जरूरत की खोज रहा है। शत्रुओं को जिस किसी भी तरह धोखे में रखने का ध्‍येय भी रहता था। ऋग्‍वेद आदि से विदित होता है कि इंद्र ने सुरक्षा के लिए पुरों का महत्‍व समझा और उसने स्‍वयं पुरों का ध्‍वंस किया। यही बात कालांतर में मेरू पर्वत को दुर्ग बनाकर देवताओं को सुरक्षित करने के रूप में पुराणों का विषय बनी। पुर, परिक्‍खा, काण्‍डवारियों, कपिशीर्षों वाले वप्र या दीवार, समुन्‍नत द्वार, हर्म्‍य-हवेलियां, वरंडिका, रथ्‍या, नागदंत वाले प्रोली-प्रतोली, मंदिर-प्रासाद, भाण्‍डागार जैसी रचनाएं दुर्ग का अंग बनी। मेरू पर्वत का आख्‍यान चीन और भारत से लेकर यूनान तक समानत: प्रचलित रहा है। कहीं न कहीं इसके मूल में समूचे क्षेत्र की परंपराएं समान रही किन्‍तु आवश्‍यकताओं के अनुसार निर्माण में भेदोपभेद मिलते हैं। 

चाणक्‍य के अर्थशास्‍त्र, उसी पर आधारित कामंदकीय नीतिसार, मनुस्‍मृति, देवीपुराण, मत्‍स्‍पुराण, रामायण, महाभारत, हरिवंश आदि में प्रारंभिक तौर पर दुर्गों का विस्‍तृत वर्णन क्‍या बताता है। राज्‍य सहित राजाओं के कुल की सुरक्षा के लिए एकानेक दुर्ग विधान से किलों को बनाने का वर्णन यह जाहिर करता है कि ये निर्माण राज्‍य की दृढता के परिचायक थे और इन्‍हीं की बदौलत कोई राजा दुर्गपति, दुर्गस्‍वामी या भूभुजा कहा जाता था। 'दुर्गानुसारेण स्‍वामि वा राट्' कहावत से ज्ञात होता है कि जिसके पास जितने दुर्ग, वह उतना ही बड़ा राजा या महाराजा। महाराणा कुंभा (1433-1568 ई.) ने 'दुर्गबत्‍तीसी' का विचार देकर भारतीय दुर्ग परंपरा में नया अध्‍याय जोड़ा।

प्रारंभ में लकड़ी के दुर्ग बनते थे जिनको शत्रुओं द्वारा जला दिए जाने का भय रहता था। अशोक के समय पत्‍थरों का प्रयोग आरंभ हुआ किंतु बालाथल जैसे पुरास्‍थलों पर जो ऊंचाई वाली प्राकार युक्‍त भवन रचनाएं मिली हैं, वे प्राचीन है। गुप्‍तकाल में दुर्गों का निर्माण अधिक रहा, कई बार इनको 'विजय स्‍कंधावार' के रूप में भी जाना गया जो जीते हुए किले होते थे या राजा के निवास या फिर छावनियां होती थीं। भोजराज ने तो राजा के प्रयाणकाल में विश्राम के दौरान डेरों को यह संज्ञा दी है किंतु उसने विवरण अर्थशास्‍त्र से ही ग्रहण किया है। सल्‍तनतकाल में दुर्गों के भेदन की विधियों का वर्णन मिलता है। साबात और सुरंग की विधि से दुर्गों को तोड़ने का जिक्र मुगलकाल में बहुधा मिलता है। इसी काल में दुर्ग जीतने का जिक्र ' कंगूरे खंडित करना' जैसे मुहावरे से दिया जाता था।

किलों की रचना में प्राकार को बहुत मोटा बनाया जाता था। आक्रमणों में इनके टूटने पर रातो रात निर्माण कर लिया जाता था। इनके साथ ही सह प्राकार हाेता था जिन पर सैनिक घूम सकते थे। मंजनिकों से पत्‍थर बरसा सकते थे। इसी का उपयोग बाद में तोपों को दागने के लिए किया गया जिनमें अंग्रेजों ने नवाचार किया। हालांकि इसका प्रारंभ मुगलों के काल में हो चुका था। दुर्गों के द्वार पर शत्रुओं की खोपडि़यां लटकाकर भय उत्‍पन्‍न करने का चलन भी इसी दौरान सामने आया जबकि पहले अर्गला भेदन को ही प्राथमिकता दी जाती थी। इसमें द्वार तोड़ने और उसके अंदर लगी पत्‍थर की आड़ी पट्टिकाओं को तोड़कर सेना का आवागमन निर्बाध कर दिया जाता था। ये पट्टिकाएं ही अर्गला कही जाती थी, हालांकि मूलत: इसका आशय द्वार के पीछे बंद करने के लिए लकड़ी या लोहे की पट्टिका से लिया जाता था...।

  है न दुर्भेद्य दुर्गों का रोचक विवरण..... और हम कितना जानते हैं, केवल देखकर ही कल्‍पना कर लेते हैं। इनके साथ नरबलियों के प्रसंग भी कम नहीं जुड़े हैं, मगर क्‍यों है, कई सवाल हैं जो दुर्ग की दीवार की तरह भेदने बाकी हैं, तो बताइयेगा और अपने देखे दिखाए किसी दुर्ग के बारें में मुझे भी जरूर बताइयेगा। मेरे यहां तो चित्‍तौड़गढ़ 7वीं सदी में बना, आखिरी किला सज्‍जनगढ़ 1885 में बना, जबकि ईसापूर्व का बालाथल पुरास्‍थल मेरे बहुत ही निकट है... जय-जय।
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* राजवल्‍लभ वास्‍तुशास्‍त्रम़ (डॉ. श्रीकृष्‍ण जुगनू),
*वास्‍तुमण्‍डनम् (डॉ. श्रीकृष्‍ण जुगनू)

भूतालाघाटी : जहां लड़ी गई हल्‍दीघाटी से भी बड़ी जंग

 
हल्‍दीघाटी की लड़ाई से भी बड़ी जंग भूतालाघाटी की थी और इस्‍लामी सल्‍तनत के खिलाफ यह मेवाड़ का पहला संघर्ष था। इसके चर्चे लम्‍बे समय तक बने रहे। यहां तक कि 1273 ईस्‍वी के चीरवा शिलालेख में भी इस जंग की चर्चा है। 'भूतालाघाटी की लड़ाई' की ख्‍याति के कारण ही 'खमनोर की लड़ाई' भी हल्‍दीघाटी की लड़ाई के नाम पर जानी गई।
गुलाम वंश के संस्‍थापक कुतुबुद्दीन ऐबक के उत्‍तराधिकारी अत्‍तमिश या इल्‍तुतमिश (1210-1236 ईस्‍वी) ने दिल्‍ली की गद्दी संभालने के साथ ही राजस्‍थान के जिन प्रासादों के साथ जुड़े विद्या केंद्रों को नेस्‍तनाबूत कर अढाई दिन के झोंपड़े की तरह आनन फानन में नवीन रचनाएं करवाई, उसी क्रम में मेवाड़ पर यह आक्रमण भी था। तब मेवाड़ का नागदा नगर बहुत ख्‍याति लिए था और यहां के शासक जैत्रसिंह के पराक्रम के चर्चे मालवा, गुजरात, मारवाड़, जांगल आदि तक थे। कहा तो यह भी जाता है कि नागदा में 999 मंदिर थे और यह पहचान देश के अनेक स्‍थलों की रही है। अधिक नहीं तो नौ मंदिर ही किसी नगर में बहुत होते हैं और इतनों के ध्‍वंसावशेष तो आज भी मौजूद हैं ही। ये मंदिर पहाड़ी और मैदानी दोनों ही क्षेत्रों में बनाए गए और इनमें वैष्‍णव सहित लाकुलिश शैव मत के मंदिर रहे हैं।

जैत्रसिंह के शासन में मेवाड़ की ख्‍याति चांदी के व्‍यापार के लिए हुई। गुजरात के समुद्रवर्ती व्‍यापारियों तक भी यह चर्चा थी किंतु व्‍यापार अरब तक था। इस काल में ज्‍योतिष के खगोल पक्ष के कर्ता मग द्विजों का प्रसार नांदेशमा तक था। कहने को तो वे सूर्य मंदिर बनाते थे मगर वे मंदिर वास्‍तव में वर्ष फल के अध्‍ययन व वाचन के केंद्र थे।

अल्‍तमिश की आंख में जैत्रसिंह कांटे की तरह चुभ रहा था क्‍योंकि वह मेवाड़ के व्‍यापार पर अपना कब्‍जा करना चाहता था। जैत्रसिंह ने उसके हरेक प्रस्‍ताव को ठुकरा दिया। इस पर अल्‍तमिश ने अजमेर के साथ ही मेवाड़ को अपना निशाना बनाया। चौहानों की रही सही ताकत को भी पद दलित कर दिया और गुहिलों के अब तक के सबसे ताकतवर शासक काे कैद करने की रणनीति अपनाई। यह योजना पृथ्‍वीराज चौहान के खिलाफ मोहम्‍मद गौरी की नीति से कोई अलग नहीं थी। उसने तत्‍कालीन मियांला, केलवा और देवकुल पाटन के रास्‍ते नांदेशमा के नव उद्यापित सूर्य मंदिर को तोड़ा, रास्‍ते के एक जैन मंदिर को भी धराशायी किया। नांदेशमा का सूर्यायतन मेवाड़ में टूटने वाला पहला मंदिर था। (चित्र में उसके अवशेष है,,, यह चित्र मित्रवर श्रीमहेश शर्मा का उपहार है।)

तूफान की तरह बढ़ती सल्‍तनत सेना को जैत्रसिंह ने मुंहतोड़ जवाब देने का प्रयास किया। तलारक्ष योगराज के ज्‍येष्‍ठ पुत्र पमराज टांटेर के नेतृत्‍व में एक बड़ी सेना ने हरावल की हैसियत से भूताला के घाटे में युद्ध किया। हालांकि वह बहुत वीरता से लड़ा मगर खेत रहा। उसने जैत्रसिंह पर आंच नहीं आने दी। गुहिलों ही नहीं, चौहान, चदाणा, सोलंकी, परमार आदि वीरवरों से लेकर चारणों और आदिवासी वीरों ने भी इस सेना का जोरदार ढंग से मुकाबला किया। गोगुंदा की ओर से नागदा पहुंचने वाली घाटी में यह घमासान हुआ। लहराती शमशीरों की लपलपाती जबानों ने एक दूसरे के खून का स्‍वाद चखा और जो धरती बचपन से ही सराहा होकर मां कहलाती है, उसने जवान खून को अपने सीने पर बहते हुए झेला।
इसमें जैत्रसिह को एक शिकंजे के तहत घेर लिया गया किंतु उसको योद्धाओं ने महफूज रखा और पास ही नागदा के एक साधारण से घर में छिपा दिया। अल्‍तमिश का गुस्‍सा शांत नहीं हुआ। उसने आगे बढ़कर नागदा को घेर लिया। एक-एक घर की तलाशी ली गई। हर घर सूनसान था। उसने एक एक घर फूंकने का आहवान किया। यही नहीं, नागदा के सुंदरतम एक एक मंदिर को बुरी तरह तोड़ा गया। हर सैनिक ने अपनी खीज का बदला एक एक बुत से लिया। सभी को इस तरह तोड़ा-फोड़ा कि बाद में जोड़ा न जा सके...। तभी तो यहां कहावत रही है-
 
 'अल्‍त्‍या रे मस मूरताऊं बाथ्‍यां आवै, जैत नीं पावै तो नागदो हलगावै।' 
 
इस पंक्ति मात्र चिरस्‍थायी श्रुति ने भूतालाघाटी के पूरे युद्ध का विवरण अपने अंक में समा रखा है।
इस घमासान में किस-किस हुतात्‍मा के लिए तर्पण किया जाता। जब पूरा ही नगर जल गया था। घर-घर मरघट था। चौदहवीं सदी में इस नगर को एक परंपरा के तरह जलमग्‍न करके सभी हुतात्‍माओं के स्‍थानों को स्‍थायी रूप से जलांजलि देने के लिए बाघेला तालाब बनवाया गया..।

(इस युद्ध की स्‍मृतियां तक नहीं बची हैं, इतिहास में एकाध पंक्तिभर मिलती है, मगर यह बहुत खास तरह का संघर्ष था। भूताला के पास ही एक गांव में पांच साल तक सेवारत रहने के दौरान मेरा ध्‍यान इस युद्ध की ओर गया था और करीब बीस साल तक अध्‍ययन- शोध के बाद, पहली बार इस युद्ध का विवरण का कुछ अंश लिखने का प्रयास किया है... मित्रों को संभवत: रुचिकर लगेगा...)
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* चीरवा अभिलेख - वियाना ऑरियंटल जर्नल, जिल्‍द 21
* इंडियन एेटीक्‍वेरी, जिल्‍द 27
* नांदेशमा अभिलेख - राजस्‍थान के प्राचीन अभिलेख (श्रीकृष्‍ण 'जुगनू')

बुधवार, 25 मार्च 2015

गाथा गेंद की... खेलते हुए सुनियेगा

बॉल हमारी बहुत जानी पहचानी है। बॉल यानी गोल, गोल यानी बॉल। दादी-दादा खेले। माता-पिता खेले। हम खेले और हमारे बाद बेटी-बेटे। बॉल सबकी प्रिय से भी प्रिय है। कई खेलों का आधार है बॉल। यदि बॉल है तो खेल है, बस हाथ में आ जाए तो खेलने की तरकीब हम ढूंढ ही लेते हैं। बॉल पकड़ी जाती है। फेंकी जाती है। उछाली और झेली जाती है। धकेली तथा चलाई भी जाती है... इस बॉल  ने हर सभ्‍यता और संस्‍कृति में अपनी मौजूदगी दिखाई है, चाहे माया जैसी सभ्‍यता ही क्‍यों न हो, जिसकी तस्‍वीर मिली है। अन्‍यत्र उत्‍खननों में साबुत बॉलें मिली हैं....। नाम तो है इसका गेंद या गेंदू मगर संस्‍कृत में कन्‍दुक कहा जाता है। यह 'क' हमारे मुखलाघव के लिए 'ग' में बदल गया है, वैसे ही जैसे प्रकट को प्रगट बोलने में सहुलियत होती है, कुछ नियमों के तहत प्राक् भी प्राग् हो जाता है..।

नींबू, नारियल, कपित्‍थ या कबिती और बेल जैसे किसी फल को देखकर बॉल का निर्माण किया गया होगा। बात गेंद की हो रही है। उत्‍खननों, खासकर हड़प्‍पाकालीन कानमेर-गुजरात याद आता है जहां बजने वाले गेंद भी मिले हैं..। कहीं दौड़ लगवाने वाली होने से इसका नाम दोड़ी या दड़ी पड़ गया तो कहीं डोट या पीटने वाली होने से डोट कहलाई...।

यो तो बालकों को यह बहुत रुचिकर लगती है। हरिवंश में श्रीकृष्‍ण के कंदुक खेल पर तो कई श्‍लोक मिल जाते है, उसको खोजने की आड़ में कालिया नाथ लिया गया...। नारियों ने भी गेंदों की कई क्रीड़ाएं दिखाई हैं तभी तो 'मूंछों पर नींबू ठहराने' जैसी कहावत की तरह 'कूर्पर (कोहनी) पर कंदुक दिखाना' जैसी कहावत भी रही होगी। क्‍यों नहीं, कुषाणकालीन एक वेदिका स्‍तंभ पर ऐसा मोटिफ भी है, जिसमें नायिका अपनी कोहनी पर कंदुक को लिए कौतुक रच रही है।

मृच्‍छकटिकं के रचयिता शूद्रक जैसे रचनाकार को यह खेल इतना भाया कि अपने एक भाण में उन्‍होंने विट के मुंह से इसकी प्रशंसा करवाई कि इस खेल में शरीर की कई क्रियाएं संपन्‍न होती हैं। इन अंग संचालनों में नत, उन्‍नत, आवर्तन, उत्‍पतन, अपसर्पण, प्रधावन वगैरह वगैरह। विट स्‍वयं इन संचालनों को पसंद करता था। उसने सखी-सहेलियों के साथ प्रियंगुयष्टिका नामक एक नायिका की कंदुक क्रीड़ा का वर्णन करते हुए सौ बार गेंद उछालने पर जीतकर खिताब लेने का संदर्भ दिया है... गुप्‍तकाल की यह दास्‍तान है। अनेकानेक मंदिरों में यह क्रीड़ा अनेकत्र देखी जा सकती है। ऐसी नायिकाओं को 'कंदुकक्रीड़ाकर्त्री' के रूप में शिल्‍पशास्‍त्रों में जाना गया है।
है न नन्‍हीं सी गेंद की गौरवशाली गाथा...।

शीतला - चेचक की देवी की विश्‍वयात्रा !

साथियो ! राजस्थान में होली के सात दिन बाद शीतला सप्‍तमी का पर्व मनाया जाता है इसके एक दिन पूर्व महिलाएं बासोडा अर्थात रसोई की ठंडी सामग्री की तैयार करती है। वे रात में खाना बनाती है और सुबह शीतला की पूजा करके, कथा सुनकर सबको बासोडा या ठंडा खाना खिलाती है। महिलाएं अपने हाथ से इस दिन आग जलाने जैसा काेई काम नहीं करती है। इसके पीछे उसका मकसद यह रहता है कि बच्‍चे बच्चियों को कभी चेचक जैसी बीमारी नहीं हो। इस दिन मां शीतला के गीत गाए जाते हैं - 
सीळी सीळी ए म्‍हारी सीतळा ए माय.. बारुडा रखवाळी सोहे सीतला ए माय...।
इस महाव्‍याधि चेचक का उन्‍मूलन हुए बरस हो गए मगर शीतलादेवी अब भी पूजा के अन्‍तर्गत है। साल में चैत्री कृष्‍णा सप्‍तमी और भादौ कृष्‍णा सप्‍तमी को शीतला की पूजा की जाती है। पश्चिमी भारत ही नहीं, पूरे देश में शीतला की पूजा की जाती है, कई नामों से इसकी प्रतिष्‍ठा है मगर यह ब्राह्मण देवी नहीं मानी गई अन्‍यथा इसके भी पूजा विधान प्रारंभिक शास्‍त्रों में लिखे होते।
इस देवी का स्‍वरूप 12वीं सदी में संपादित हुए स्‍कन्‍दपुराण में आया है और मंत्र के रूप में इसको दिगम्‍बरा, रासभ या गधे पर सवार, मार्जनी-झाडू व कलश लिए तथा शूर्प से अलंकृत बताई गई है -
 
नमामि शीतलादेवी रासभस्‍था दिगम्‍बरा। मार्जनी कलशोपेता शूर्पालंकृता मस्‍तका।।
 
मध्‍यकाल में इसकी मूर्ति बनाने के लक्षण मेवाड में 1487 ईस्‍वी में रचित वास्‍तुमंजरी आदि में लिखे गए।
प्रयाग के रामसुन्‍दर ने शीतला चालीसा को लिखा जबकि 1900 में डब्‍ल्‍यू. जे. विल्किंस ने हिंदू माइथोलॉजी, वैदिक एंड पुराणिक में इस देवी की मान्‍यताओं का सिंहावलोकन किया है। दुनिया के कोई सात धर्मों में इसकी अलग अलग नामों से मान्‍यता मिलती है। जापान आदि में यह सोपान देव के नाम से योरूवा धर्म में है। हमारे यहां बौद्धकाल में हारिति देवी के नाम से एक मातृका की पूजा की जाती थी, जिसकी गोद में बालक होता था, बालकों की रक्षा के लिए इसको पूजा जाता था। गांधार से तीसरी सदी की हारिति की मूर्तियां भी मिली हैं। ऐसा माना जाता है कि इस तरह की मान्‍यताओं का निकास इस्रायल, पेलेस्‍टाइन से हुआ। खासकर उन व्‍यापारियों से इसको पहचाना गया जो बर्तन आदि वस्‍तुओं का विपणन करने निकलते थे।

यह चेचक जिसे smallpox की देवी मानी जाती है। चेचक की व्‍याधि पूतना के नाम से पृथक नहीं है। भारत में इस व्‍याधि का प्रमाण 1500 ईसा पूर्व से खोजा गया है जबकि मिस्र में इसके प्रमाण 3000 वर्ष पूर्व, 1145 ईसापूर्व के मिलते हैं। वहां के राजा रामेस्‍सेस पंचम और उसकी रानी की जो ममी मिली है, उसमें इस रोग का प्रमाण है। चीन में इसका प्रमाण 1122 ईसापूर्व का मिला है, चीन से यह व्‍याधि कोरिया होकर 735-737 में जापान पहुंची तो महामारी की तरह फैली और एक तिहाई आबादी प्रभावित हुई। भारत में औरंगजेब के शासनकाल के 16-17 सितंबर, 1667 ई. के एक फरमान से ज्ञात होता है कि शीतला के स्‍थानकों पर हिंदुओं और मुस्लिमों की भीड लग जाती थी, उनको नियंति करने के लिहाज से राजाज्ञा जारी करनी पडी थी। गांव गांव शीतला के स्‍थानक, मंदिर मिलते हैं। चाकसू, वल्‍लभनगर, सागवाडा आदि में मध्‍यकालीन मंदिर मिलते हैं।

है न चेचकी की देवी शीतला की विश्‍वयात्रा की रोचक कहानी। हमारे यहां तो होली के दहन के दूसरे दिन से लेकर सात दिनों तक रोजाना महिलाएं उठते ही शीतला माता को ठंडी करने जाती है, इन दिनों को ही अगता मानकर उनका पालन करती हैं... एक व्‍याधि के शमन के लिए देवी की पूजा की मान्‍यता हमारी आस्‍था की पगडंडियों को मजबूती देती दिखाई देती है।

मंगलवार, 24 मार्च 2015

निसारदी : रागमाला चित्र सर्जक

मुगलकाल में मेवाड़ और अकबरी दरबार के बीच एक सांस्‍कृतिक प्रतिस्‍पर्द्धा भी रही। महाराणा प्रताप के काल में निसारदी नामक चित्रकार ने चावंड में रहकर जिन चित्रों की शृंखला रची, वह रागमाला के नाम से इतिहास प्रसिद्ध है। निसारुद्दीन ने अपने चित्रों पर निसारदी नाम से हस्‍ताक्षर किए हैं। उसने अपना सृजन 1596 से आरंभ किया और 1605 तक निरंतर रखा। यानी दो महाराणाओं के कार्यकाल तक यह कार्य हुआ। इसे महाराणा प्रताप (1572-1597 ई.) ने आरंभ किया और महाराणा अमरसिंह (1597-1615 ई.) के शासनकाल में पूरा हुआ। से रागमाला की इस चित्र श्रृंखला के बाद अन्‍यत्र भी रागमाला चित्र-श्रृंखलाएं बनीं। मेवाड में भी एक दूसरी रागमाला श्रृंखला साहबदीन ने तैयार की।

ताज्‍जुब इस बात का है कि रागमाला के नाम से कृतियों का सृजन अकबर के दरबार में हुआ था। प्रसिद्ध गायक तानसेन और विट्ठल पुंडरीक ने 'रागमाला' नाम से पुस्‍तकें लिखी हैं। विट्ठल पुंडरीक को जयपुर के कछवाहा वंश का संरक्षण प्राप्‍त था और तानसेन को अकबर का। मगर, इस कृति पर चित्रों की श्रृंखला खड़ी करने का श्रेय मेवाड़ को मिला।
मेवाड़ को यूं तो मुगल नीति विरोधी माना गया मगर इसी धरती पर रागमाला रची गई। है न दोनों सत्‍ताओं के बीच टकराव के दौर में सृजन के संकल्‍प का सुख और सौहार्द्र। यह शृंखला बहुत चर्चित रही। इसमें कम से कम 42 चित्र बनें। ये छह राग और 36 रागिनियों के थे। मारुराग के चित्र पर तो भारतीय डाक तार विभाग ने डाक टिकट भी जारी किया है।
(प्रस्‍तुत चित्र सोरठ रागिनी का है, गुजरात मूल की इस रागिनी में नायिका नायक तो तांबूल दे रही है। सोरठी गीतों में इस प्रकार की मनुहार परम्‍परा के गीतों की राग कभी सोरठी के नाम से ख्‍यात रही हो, यह सोचा जाना चाहिए।)