शुक्रवार, 26 दिसंबर 2014

यों बनाई जाती थी प्रतिमाएं-

प्रतिमा का निर्माण नि:संदेह कठिन काम होता था। इसमें चित्रांकन, ताल-मान और शास्‍त्रीय स्‍वरूप निर्देश का ज्ञान आवश्‍यक होता है। भारतीय प्रतिमा शात्रों में ऐसा जिक्र है, इसीलिए हमारे यहां मूर्तिशास्‍त्रों से पहले चित्रशास्‍त्रों की परिकल्‍पना और रचना की गई। नग्‍नजित का विश्‍वकर्मीय चित्रशास्‍त्र इसका जीवंत रूप है। विष्‍णुधर्मोत्‍तर का चित्रसूत्र, मंजुश्रीभाषित चित्रशास्‍त्रम्, सारस्‍वत चित्रशास्‍त्रम्, ब्राहमीय चित्रशास्‍त्रम् आदि भी इसके बेहतर उदाहरण हैं।
सूत्रधार के निर्देश पर चित्रकार पहले पत्‍थर पर आलेखन कार्य करता। मेवाड़ के सूत्रधारों के अनुसार इस प्रक्रिया को 'डाकवेल' कहा जाता था। इसके बाद, तक्षक चीराई का काम करता और शिल्‍पी इसको गढ़ने का काम करता था। वह पत्‍थर को मुलायम रखने के लिए पानी का बेहतरीन तरीके से प्रयोग करता था ताकि मूर्ति श्‍लीष्‍ट, मुलायम बने। सम्‍पूर्ण लक्षण सम्‍मत रूपाकार होने पर ही प्रतिमा का उपयोग किया जाता था। अन्‍यथा उसको जलाशयों के पास किसी दीवार के काम में लाने को दे दिया जाता। जैसा कि चित्‍तौड़गढ़ में हुआ है।

हाल ही मित्रवर ललितजी शर्मा ने बिलासपुर जिला छत्तीसगढ़ के प्राचीन नगर मल्हार में एक मूर्ति का डाकवेल वाला प्रमाण खोजा है। वह बताते हैं कि पुरातात्विक प्रमाणों के आधार पर इसका इतिहास ईसा पूर्व 1000 वर्ष तक माना जाता है। यहाँ के देऊर मंदिर के द्वार पट पर उनको जस प्रतिमा का लेआऊट दिखाई वह महिषासुर मर्दिनी का है। शिल्पकार प्रतिमा बनाना चाहता था पर पता नहीं क्या कारण रहा होगा, उसने इसे अधूरा छोड़ दिया। इस तरह का ले आऊट पहली बार किसी स्थान पर देखने मिला है।

इसमें देवी का कात्‍यायनी रूप है, वही जो अलोरा से लेकर अन्‍यत्र भी लोकप्रिय रहा है। मत्‍स्‍यपुराण में इसका विवरण है जिसको देवतामूर्तिप्रकरणम में सूत्रधार मंडन ने उद्धृत किया है। इसमें देवी के बायें स्‍कंध पर शुक भी अंकित है, यह शुकप्रिया अंबिका का रूप है। इस पर आम्रलुम्बिनी परंपरा का प्रभाव होता था। देखियेगा, और अन्‍यत्र भी ऐसे रेखांकन याद कीजिएगा। मेरे लिए तो चित्‍तौड के समीधेश्‍वर मंदिर और राजसमंद झील के रेखांकन स्‍मरण में आ रहे हैं। 

मूर्तिमय मां - एक भारतीय परंपरा

भारतीय शिल्‍पशास्‍त्रों में नारी का अलंकारिक स्‍वरूप तो बनाया जाता ही है मगर उसको शिशु सहित भी दिखाया जाता है। वाराही आदि मातृका रूपों में भी ऐसा होता है मगर, मानवीय प्रतिमाओं में शिशुओं को गोद में लिए नारियों को चित्रित, उत्‍कीर्णित दिखाने की परंपरा छठवीं सदी से मिलती है। नवीं-दसवीं सदी तक तो यह छवि इतनी लोकप्रिय हो गई कि मन्दिर-मन्दिर के बाहरी जंघा भाग इन प्रतिमाओ से आकीर्ण दिखाए जाने लगे। पश्चिमी क्षेत्र से लेकर पूर्व तक ये स्‍वरूप बने।

वास्‍तुविद्या, शिल्‍पप्रकाश आदि ग्रंथों में इस छवि को ''शिशुक्रीड़ा'' नाम दिया गया है। ऐसी छवि जिसमें नारी अपने शिशु को अपनी गोद में उठाए हुए हो। ये छवियां दुग्‍धपान कराती भी दिखाई जाती। इनका मूल मत्‍स्‍यपुराण का पार्वती और वीरक-स्‍कंद का आख्‍यान है अथवा कालिदास के कुमारसम्‍भव की पृष्‍ठभूमि, कहा नहीं जा सकता मगर यह लगता है कि शैलसुता ने अपने सुत को लोरी सुनाकर या क्रीड़नक के सहारे बहलाकर जो वात्‍सल्‍य प्रदर्शित किया, वह मूर्तिकारों की प्रेरणा बन गई।

Yuga Karthick का आभार कि उन्‍होंने एक प्रतिमा की छवि भिजवाई है जिसमे खड़ी हुई मां अपने शिशु को गोद में उठाए हुए रुदन को शांत करवा रही है। उसके हाथ में शिशु है तो दूसरे में वह अपनी केशराशि के पास झुनझुना बजाकर उसको बहला रही है। इस छवि का तालमान तो स्‍मरणीय है ही, बनाने वाला शिल्‍पी जरूर लंबे कद का रहा होगा। वह अलंकरणों का भी प्रेमी रहा होगा, उसने सिर से लेकर पांव तक सुहागिन माता को अलंकृत किया है।

झीने वस्‍त्र भी दर्शनीय है मगर सबसे रूचिकर है ममतामयी वह छवि जिसमें मातृत्‍व का भाव हिलोर लेता अपनी प्रतीति दे रहा है। धनुषाकार स्थिति, एकाधिक भंगीय न्‍यास, शिशु का कोणाकार स्‍वरूप और बहलाव का अंदाज... वाह सच में एक भारतीय मां... जो शिशुरंजना होकर अपना रंजन कर रही है। देखियेगा, अपने आसपास और कौन-कौन से देवालयों की दीवारों पर मां-बेटे का ये रूप रूपाकार हो रहा है....।

एक शिलालेख गुजरात से -


बारहवीं-तेरहवीं सदी तक हमारे यहां शिलालेखों, राजकीय आज्ञाओं, ताम्रानुशासनों को लिखने की एक शैली और पाठ का निर्धारण हो गया था, बिल्‍कुल वैसे ही जैसे आज सरकारी कामकाज में भाषा तय है। 'लेखपद्धति' नामक मध्‍यकालीन संग्रह ग्रंथ में ऐसे अभिलेखों के पाठ का दस्‍तावेजी संग्रह है जो शिलालेखों पर उत्‍कीर्ण किया जा चुका था या लिपिकार उनको अपना चुके थे। ऐसा ही एक शिलालेख गुजरात के Kutch Itihas Parisad की ओर से मिला है। जिज्ञासा है कि इसके पाठ को पढा जाए। इसका मूल पाठ मेरे पठन के अनुसार इस तरह होगा-


 * ज्‍ संवत् 1328 वर्षे श्रावण सुदि 2 शुक्रे (शुक्रवारे) अधेह श्रीमद
णहिल्‍लपाटका वेष्टित समस्‍त रा-
जावली समलंकृत महाराजाधिराज श्री
मदर्ज्‍जुनदेव कल्‍याण विजय
राज्‍ये तन्नियुक्‍त महामात्‍य श्रीमालदेवे श्रीश्रीकरणांदि
समस्‍त मु-
द्रा व्‍यापारान् परिपंथयति सतीत्‍युव काले प्रवर्तमाने श्रीघतघद्या
मंडलकरण प्रतिवर्ष्‍ष एव ग्रामे देवी श्रीराववी पादानां पुरतो
घांघणीया ज्‍जातीय बार बरीया सुत रवि सींहेन आत्‍म श्रेयार्थ वापी कारापिता।
कारापान 1600 शुभं भवतु।*

लेख पद्धति के अनुसार यह अभिलेख उस काल के व्‍यापारियों के संबंध में राजाज्ञा का सूचक होता है, ऐसे ही दो अभिलेख दरीबा-मेवाड़ की विश्‍व प्रसिद्ध खदान के पास सूरजबारी माता मंदिर से मिले हैं। दोनों ही पिता-पुत्र महाराजाओं के हैं, महारावल समरसिंह और रत्‍नसिंह (रानी पदि़मनी के पति) के हैं। सन् 1298 व 1302 के। भाषा और लिपि ही नहीं, पाठ भी लगभग समान है। संयोग ही है कि गुजरात के श्रावण शुक्‍ला द्वितीया, 1272 ई. के इस अभिलेख में भी देवी मंदिर के पास वापी या बावड़ी के निर्माण का जिक्र है। इसको अपने ही श्रेय के लिए रवि सिंह ने बनवाया था। यह निर्माण अनहिलवाड पाटन के शासक, समस्‍त राजावलि में विभूषित अर्जुनदेव के कल्‍याणकारी राज्‍यकाल में हुआ था।

 विश्‍लेषक-डॉ. श्रीकृष्‍ण 'जुगनू'

राजस्थान का खजुराहो 'जगत का अम्बिका मंदिर'- प्रणयलीन प्रतिमाओं का भण्डार- डॉ. श्रीकृष्ण ‘जुगनू


राजस्‍थान का खजुराहो कहा जाने वाला उदयपुर का जगत मंदिर प्रणयलीन प्रतिमाओं का सुन्दर भण्डार है। प्रासादों में प्रणय प्रतिमाएं बनाने की परंपरा इसके निर्माण काल तक महत्व प्राप्त कर चुकी थी। देवकन्याओं, सुरसुन्दरियों को देवताओं के साथ विभिन्न मुद्राओं में दिखाया जाने लगा था, जिसका सुंदर उदाहरण यहां देखने को मिलता है। मंदिर में पान गोष्ठियां, चषक के साथ मधुपान, नर्तन, गायन, वादन सहित संगम-समागम के सरोकार जैसे कई दृश्य यहां शिलापट्टों पर उत्कीर्ण हैं। ये पूर्व मध्यकालीन सामाजिक परंपराओं और विलासी नागरक या नगरीय जीवन की प्रवृत्तियों की जीती-जागती तस्वीरें हैं।

देवालयों की शाखाओं को मिथुन मूर्तियों से सज्जित-मण्डित करने का प्रचलन इस काल में एक आवश्यक अंग हो चुका था। ऐसे में यहां भी विभिन्न थरों-शाखाओं का चित्रीकरण इन रूपों से करते हुए प्रासाद के बाह्य भाग को अलंकृत किया है। कंदुक क्रीड़ा, पदगत कंटकशोधन, सद्यस्नाता जैसी नायिका प्रतिमाएं यहां अपने लक्षणों के साथ-साथ सुरुचिपूर्ण सौन्दर्ययष्टि का जीवन्त साक्ष्य है।

यह मन्दिर सचमुच सांस्कृतिक-धार्मिक विरासत का विचित्र स्तम्भ कहा जा सकता है। पुरातत्व विभाग के अधीन यह संरक्षित है मगर यहां से मूल प्रतिमा गत दशक में चोरी चली गई। सभा मण्डप स्थित नृत्य गणपति की प्रतिमा को भी उखाड़कर ले जाने के प्रयास दो-तीन बार हो चुके हैं। ऐसे में यह प्रासाद मूर्ति तस्करों की नजर में है, सुरक्षा की दृष्टि से निरापद नहीं है। कितनी विडम्बना है कि जिसको सुरक्षित, संरक्षित रखने के प्रयास राजाश्रय में सदियों तक होते रहे, उसकी सुरक्षा के प्रयास अपर्याप्त है। क्या सार्वजनिक सम्पति किसी की नहीं होती, जिन प्रासादों की सुरक्षा के लिए लोगों ने प्राणों तक की परवाह नहीं की, उनकी प्रतिमाओं को चुराने के प्रयास उन्हें प्राण विहीन ही कर रहे हैं। फिर, जो प्रासाद विरासत के संरक्षण का पाठ पढ़ा रहा है, उसकी अनदेखी विचारणीय है।

जगत में विरासत संरक्षण का पाठ :

राजस्थान की मन्दिर-विरासत में जगत गांव के जगदंबिका प्रासाद का स्थान अतीव महत्वपूर्ण है। इसे राजस्थान के खजुराहो के रूप में नामांकित किया गया है। उदयपुर जिला मुख्यालय से लगभग पचास किलोमीटर आग्नेय कोण में कुराबड़ के पास जगत गांव के बाहर बना यह अपने अंक में लगभग एक हजार साल की कला, धर्म और आनुष्ठानिक स्मृतियां संजोये हुए है। मानव मन की आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए आवश्यक ऊर्जा-शक्ति, सृष्टि की निरन्तरता के लिए अपरिहार्य काम-शक्ति और जीवन के धारणा ध्येय के लिए अपेक्षित धर्म-शक्ति का यह जीता जागता उदाहरण है। यूं भी प्रासाद स्थापत्य की बुनियाद इन तीनों ही वांछित वर्गों की पूर्ति में सहायक स्वीकारी गई है। ये वर्ग हमारी सात्त्विक विरासत है जिनका सम्बन्ध मानवीय भावों से है और ये सांस्कृतिक तत्व की तरह मानव को अपने सभ्य समाज से जन्मतः: सुलभ होते हैं।

पुरखों का लिखा है विरासत को बचाए रखने का संदेश :

यह मन्दिर प्रदेश की उन स्थापत्य रचनाओं में स्वीकारा जाता है जो किसी हमले में ध्वस्त या खण्डित-भंजित होने से अक्षुण्ण रहा। बल्कि, विरासत को अक्षुण्ण रखने सहित उसके संरक्षण-संवर्धन के जीवनोपयोगी मूल्य और पुण्यफल का पाठ भी पढ़ा रहा है। यही वह प्रासाद है जिसके स्तम्भ पर आज से लगभग 1054 वर्ष पूर्व तत्कालीन महारावल अल्लट के शासनकाल (विक्रम संवत् 1017, ईस्वी 960) पुरखों की विरासत को बचाए रखने के संदेश के साथ-साथ इस पुण्यकर्म के स्वाभाविक फल को भी आदर्श रूप में लिखा गया है :
वापी-कूप-तडागेषुु-उद्यान-भवनेषु च।
पुनर्संस्कारकर्तारो लभते मूलकं फलम्॥
इस श्लोक में विरासत के महत्व के स्थलों के रूप में सीढ़ी वाले कुएं या बावड़ी, कुआं, तालाब-तड़ाग जैसे जलस्रोत, पर्यावरण को शुद्ध रखने वाले उद्यान और बावडिय़ां तथा सार्वजनिक हित के विश्रान्ति भवन, शैक्षिक स्थल, आश्रमीय मठ, देवालय आदि के संरक्षण के भाव से उनका पुनर्संस्कार करने की प्रेरणा देते हुए कहा गया है जो कोई संकल्पित होकर पुनरुद्धार करवाता है तो वह उसी फल से लाभान्वित होता है जो कि मूल कार्य करवाने से मिलता है। यह वह ध्येय वाक्य है जो विगत दो हजार सालों से विश्व समुदाय को अपनी विरासत की अनदेखी नहीं करने की प्रेरणा दे रहा है। मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त की जूनागढ़ स्थित सुदर्शन झील के पुनर्संस्कार से ऐसा ही पुण्यफल क्षत्रप शासक रुद्र दामन (105 ई.) और प्रान्तपाल चक्रपालित (455-56 ई.) ने प्राप्त किया था। बाद में यही फल-कथन हमारी विष्णु-धर्म, बृहस्पति, यम और शंखलिखित जैसी स्मृतियों और आग्नेय, विष्णु-धर्मोत्तर, गरुड आदि पुराणों में वर्णित मानव-कर्तव्यों का निर्देश वाक्य भी बना। हयशीर्षपञ्चरात्र में तो यह तक कहा गया कि वापी, कूप, तालाब, देवालय, प्रतिमा, सभागृह आदि का समय-समय पर संस्कार करवाते रहना चाहिए। इससे पुण्यात्मा को मूलकार्य की अपेक्षा सौ गुना पुण्य नि:सन्देह मिलता है।

अम्बिका देवी का समर्पित है जगत मंदिर:

जगत का यह प्रासाद मूलत: अम्बिका देवी को समर्पित है। यह महिषासुर मर्दिनी के स्वरूप और मन्दिरों की उसी परंपरा में बना है जो कि उत्तर-पश्चिमी भारत में बहु लोकप्रिय परिपाटी के रूप में व्यवहार्य रही। हालांकि राजस्थान देवी के इस रूप के प्रति आस्था की विरासत लगभग दो हजार सालों सहेजे हुए है। हर्षोत्तरकाल में क्षत्रियों ने जब अपने राजवंशों को क्षेत्रीयता के अनुसार स्थापित करने का प्रयास किया तब इस तरह इष्ट कुलदेवियों और शक्तिस्थलों को बनाए जाने लगे बल्कि, निर्माण की यह परंपरा बहुत बलवती रही। योगिनियों से लेकर मातृ देवियों, लीला देवियों और शास्त्रीय रूप में स्वीकृत लोक माताओं के भी मन्दिर सामने आए, भले ही पंचायतन शैली के मन्दिर ही क्यों न हो।

नवीं सदी में बन चुका था यह मंदिर:

यह मन्दिर कब बना, ज्ञात नहीं। चार अभिलेख यहां से मिले हैं, उनमें इसके जीर्णोद्धार या संस्कारों का ही जिक्र है। इनमें से प्राचीन ज्ञात अभिलेख विक्रम संवत् 1017 का है जबकि इससे पूर्व यह मन्दिर बन चुका था। प्रमाण सिद्ध करते हैं कि यह 850 ईस्वी के बाद बन चुका था। यह समय प्रतिहार शासक महिपाल का था। प्रतिहारों को उनके अभिलेखों में ‘परम भगवति भक्तो’ या शाक्त लिखा गया है। फिर, यह मन्दिर उनके ग्यासपुर के देवी मन्दिर जैसी स्थापत्य रचना को ग्रहण किए है। यही नहीं, प्रतिहारों के 843 व 816 ईस्वी के दानपत्रों में चतुर्भुज गोधासना देवी प्रतिमाएं उत्कीर्ण हैं। इस काल के शिल्पशास्त्रों के अनुसार गोधासना वे देवी प्रतिमाएं हैं जिनको गोह नामक जन्तु पर आरूढ़ दिखाया जाता है जैसा कि बुचकला-जोधपुर के 873 ईस्वी में बने शिवालय में चतुर्भुजी पार्वती गोह पर आरूढ़ है। यही स्वरूप जगत के मन्दिर के प्रवेशद्वार के दक्षिण-पूर्वी मण्डोवर भाग में षड्भुज, पद्मासनस्थ पार्वती का है जो कि गोधासना है, हालांकि इसके निर्माणकाल पर विशेष विचार की जरूरत है किन्तु यह तय है कि यह नवीं सदी में बन चुका था और निर्माण के कुछ समय बाद ही इसके जीर्णोद्धार और पुन: ध्वजा सहित कलशारोहण जैसे कार्यों से इसके सौन्दर्य सहित अर्चना के स्वरूप को निरन्तर रखा गया।


देखने को मिलते हैं देवी के कई रूप:

अम्बिका की पृष्ठभाग में उत्कीर्ण प्रतिमा शुक सहित है। शुक्रप्रिया अम्बिका का यह स्वरूप पश्चिमी गुहा या लयन प्रासादों से लेकर शास्त्रों तक में वर्णित है। वैसे यहां शुम्भहन्त्री देवी रूप में महिष का स्वरूप पशु और मानवीय दोनों रूपों में मिलता है। जगत के इस मन्दिर की अन्य प्रमुख रचनाओं में मकरमुख प्रणाल, शिखर की संवरणाएं और जलान्तर सहित शिखर विधान मुख्य है। यह नागर शैली की स्थानीयता का प्रतिनिधित्व करते हुए निरूपित किया गया है।
प्रतिहार कालीन यह प्रासाद उन अखंड रचनाओं का प्रतिनिधित्‍व करता है जिनमें शिखर अभी भी विद्यमान हैं। मनुष्‍य की शिरोरचना की तरह ही इस प्रासाद का शिखर गढ़ा गया है और लगता है कि संपूर्ण अपेक्षित शिखर का प्रमाण एक-एक सूत सहित पहले कल्पित करके एक-एक पाषाणखंड भूमि पर ही गढ़ा गया और फिर शिखर पर चढ़ाया गया। अपराजित पृच्‍छा में इस प्रकार के शिखर विधान का अंतिम विवरण लिखा गया, यही विवरण 'कलानिधि' ग्रंथ के रूप में सूत्रधार गोविंद ने उद्धृत किया, विडंबना है कि हमारे पास ऐसे शिखर विधान का विशारद अब नहीं है, कलानिधि का संपादन करते समय मैं शिखर पर डाली जाने वाली कलाओं के नाम और उनके प्रमाण का ही अनुवाद करके रह गया, बहुत प्रयास किया कि कोई तो इनका खुलासा करे, मगर न हो सका,,, ऐसे प्रासाद का शिखर देखने पर आश्‍चर्य ही लगता है
आलेख:- डॉ. श्रीकृष्ण ‘जुगनू (दैनिक भास्कर के 19 नवम्बर, 2014 के अंक में प्रकाशित)

देवालयों के निर्माण की रूपरेखा- डॉ. श्रीकृष्ण ‘जुगनू


हमारे यहां देवालयों के कई प्रकार हैं। सांधार और निरंधार तो संज्ञाएं हैं ही, मगर लयन या लेण गृह उन गुफाआें के लिए कहा गया है जिनमें शुरू शुरू में आवास के साथ-साथ आराधना का सिलसिला शुरू हुआ था। गुप्‍तकालीन प्रमाण जाहिर करते हैं कि देवालयों के कई स्‍वरूपों का विकास हो चुका था। बृहत्‍संहिता और उसका आधार रही काश्‍यपीय संहिता में कैलास आदि दर्जनों प्रासाद शैलियों और स्‍वरूपों का वर्णन आया है। राजा भोज ने 1010 ई. के आसपास जब समरांगण सूत्रधार ग्रंथ की रचना की तो प्रासादों के देवानुसार स्‍पष्‍ट वर्गीकरण किया गया और इतने अधिक स्‍वरूपों का वर्णन किया कि उनको यदि मॉडल रूप में भी बनाया जाए तो एक भारत और चाहिए। हजारों रूप है प्रासादों के न्‍यास-विन्‍यास के। इसलिए कोई एक मंदिर दूसरे से वैसे ही नहीं मिलता जैसे एक सूरत दूसरी सूरत से नहीं मिलती। इसके विमान, देवायतन, देवालय, प्रासाद, मन्दिर आदि पर्याय हैं।
कैसे होता था इनका निर्माण ?
 शास्‍त्रों में इनके तलच्‍छन्‍द और स्‍वरूप का ही वर्णन मिलता है, मगर ये सच है कि प्रासादों के निर्माण से पूर्व उनका नक्‍शा तैयार किया जाता था। नक्‍शों का प्रारंभिक जिक्र 'मिलिन्‍द पन्‍हो' में आता है। तब नगर वढ्ढकी या नगर निवेशक (नगरवर्धकी) भूमि के चयन से लेकर वहां पर नगर निवेश के लिए उचित मापचित्र तैयार करता था और उपयोगी, अावश्‍यक भवनों की योजना बनाकर नवीन नगर बसने के बाद दूसरी जगह चला जाता था। सौन्‍दरानन्‍द नामक बौद्धकाव्‍य और उसके समकालीन हरिवंशपुराण में 'अष्‍टाष्‍टपद' के रूप में नगर, राजधानी आदि की योजना कल्पित करने का प्रसंग आया है। यह 8 गुणा 8 यानी चौंसठ पद वास्‍तुन्‍यास होता था...। इसी आधार पर कपिलवस्‍तु और द्वारका की योजना तैयार हई थी।
राजा भोज के काल में ही भोजपुर का शिव मन्दिर बना। यह अपने सौंदर्य और शिल्‍प ही नहीं, स्‍थापत्‍य के लिए भी एक मानक शिवायतन के रूप में जाना जाता है। इस मंदिर की विशेषता यह भी है कि इसके स्‍थापत्‍य के लिए पास की एक चट्टान पर नक्‍शा तैयार किया गया था। मंदिर की पूरी योजना को अलग-अलग रूप में तय किया गया और शिवलिंग से लेकर द्वार, दीवार, शिखर तक को परिकल्पित किया गया। समरांगण सूत्रधार में जिन प्रासादों के रूपों का लिखा गया है, उनमें शिवालयों के प्रसंग में इस प्रासाद की रचना और उसके नक्‍शे से शब्‍दों सहित योजना विधान को समझा जा सकता है।

यह प्रासाद दर्शन मेरे समरांगण सूत्रधार के अनुवाद (प्रकाशक- चौखम्‍बा संस्‍कृत सीरिज ऑफिस, वाराणसी) के समय बहुत काम आया। दो साल पहले, 2012 के अगस्‍त के पहले हफते में मैं भोपाल के कलाविद श्री सुरेशजी तांतेड और डॉ. महेंद्र भानावत के साथ भोजपुर पहुंचा तो यह सब देखकर विस्मित हो गया। मेरे आग्रह पर मित्र Gency Chaudhuri ने इन नक्‍शों के चित्रों को भेजा है,,, आप भी प्रासाद स्‍थापत्‍य विधान के मूलाधार तलच्‍छन्‍द की योजना का आनंद उठाइयेगा।


-डॉ. श्रीकृष्ण ‘जुगनू'

बुधवार, 24 दिसंबर 2014

नागर, द्राविड और वेसर प्रासाद शैलियां

मंदिरों के निर्माण का अपना वैशिष्‍ट्य रहा है। युगानुसार भी और क्षेत्रानुसार भी उनका निर्माण होता रहा है। वे तल या अधिष्‍ठान से लेकर शिखर या स्‍तूपी तक अपना आकार मानव के शरीर के रचना की तरह ही अपना स्‍वरूप रखते हैं। उनकी सज्‍जा या अलंकरण का अपना खास विधान रहा है और इसके लिए शिल्पियों ने अपने कौशल को दिखाने में प्रतिस्‍पर्द्धा सी की है।

प्रासादों के स्‍वरूप के निर्णय के लिए हमें हमारे शिल्‍प ग्रंथों को जरूर देखना चाहिए जिनमें उनके रचनाकाल से पूर्व की परंपराओं को लिखा गया है। मयमतं हो या मानसार या फिर शैवागम अथवा वैष्‍णवागम हों, उनमें प्रासादों की रचना के लिए पर्याप्‍त विवरण मिलता है। दक्षिण के नारायण नंबूदिरीपात ने 'देवालय चंद्रिका' में प्रासादों के शिल्‍प के लिए निर्देश किए हैं तो सूत्रधार मंडन ने 'प्रासादमण्‍डनम्' में प्रासादों के संबंध में समग्र योजना और कार्यविधि को लिखा है। संयोग से इन दोनों ही ग्रंथों के संपादन का मुझे सौभाग्‍य मिला है।

इन दिनों शिल्‍परत्‍नम पर काम चल रहा है। इसकी रचना 16वीं सदी की हैं। इसमें कहा गया है 1. नागर, 2. द्राविड और 3. वेसर शैलियों के मंदिर भारत में बनते आए हैं, मगर सबका अपना अपना स्‍वरूप रहा है। लाख प्रयासों के बावजूद शिल्पियों ने अपने ढंग से ही मंदिरों की रचना की है। मानव की तरह ही उनके रूप रंग में कुछ न कुछ भेद मिलता ही है। यही कारण है कि समरांगण सूत्रधार में मंदिरों के संबंध में जो विवरण है, उनको यदि नमूने के तौर पर भी बनाया जाए तो एक भारत कम पड़ जाए...। ऐसा ही विस्‍तृत विवरण ईशान शिवगुरुदेव पद्धति में मिलता है जिसके उत्‍तरार्ध का क्रियापाद अधिकांशत: देवालयों से संबंध रखता है।

शिल्‍परत्‍नकार श्रीकुमार का मत है कि हिमालय से लेकर विंध्‍याचल तक सात्विक गुणों के नागर, विंध्‍याचल से लेकर कृष्‍णा तक राजस गुणों के द्राविड और कृष्‍णा से लेकर कन्‍यान्‍त तक तामस गुणों वाले वेसर शैली के प्रासादों के निर्माण की परंपरा रही है -
 
नागरं सात्विके देशे राजसे द्राविडं भवेत्। वेसरं तामसे देशे क्रमेण परिर्की‍तिता:।।
 
इसी प्रकार की मान्‍यताएं 8वीं सदी के ग्रंथ 'लक्षण सार समुच्‍चय' में आई हैं...।
आज इतना ही, कभी फिर।
 
- डॉ: श्रीकृष्‍ण जुगनू

द्राविड़ प्रासाद : रचनात्‍मक स्‍वरूप

शिल्‍प शास्‍त्रों में जिन तीन प्रकार के प्रासादों का उल्‍लेख मिलता है, उनमें द्राविड या द्रविड़ शैली के प्रासाद विंध्‍याचल से कृष्‍णा तक के प्रदेश में करणीय बताए गए हैं।
 
अजितागम नामक शैव आगम में आया है कि वे प्रासाद जिनमें कण्‍ठ आदि का निर्माण अष्‍टकोणीय रूप में हो, वे द्राविड़ प्रासाद कहे जाते हैं :
 
कण्‍ठात्‍प्रभृति चाष्‍टाश्रं द्राविडं परिकीर्तितत्। (क्रियापाद, 12, 67)
 
इसी प्रकार सुप्रभेदागम में आया है : 
 
ग्रीवमारभ्‍य चाष्‍टाश्रं विमानं द्राविडाख्‍यकम्। (सुप्रभेद. 1, 31, 40)
 
करणागम में मामूली भेद से कहा गया है : 
 वेदि प्रभृति चाष्‍टाश्रं द्राविडं चेति कीर्तिततम्। (करण. 1, 7, 117)
 
इन्‍हीं प्रासादों में अन्‍य रूपों को आरोपित करते हुए अन्‍य रूपों का विन्‍यास किया जाता रहा है, जैसे सौभद्र, स्‍वस्तिकबंध, सर्वतोमुख, सार्वकामिकम् आदि। शैवागमों में इस प्रकार की मान्‍यताओं का सर्वाधिक वर्णन मिलता है, कारण है कि शिवलिंग की स्‍थापना और उनका पूजा विधान का प्रसार करना। कामिकागम इनमें सबसे पुराना विवरण लिए है और अंशुमद्भेदागम जैसे अन्‍य आगम उसी का आश्रय ग्रहण किए हैं। मयमतं, मानसार जैसे शिल्‍पग्रंथ और तंत्र समुच्‍चय आदि में भी यह विवरण मिल जाता है।
 
द्राविड़ प्रासादों में भी मनुष्‍य के शरीर के अंगों का ऊर्ध्‍वाधर विन्‍यास मिलता है। एक प्रासाद अपने रूप में मानवीय संरचना ही लिए होता है। एक द्राविड प्रासाद का रेखांकन इस मान्‍यता को सिद्ध करने में सहायक है। देखियेगा कि चरण से लेकर सिर तक के अंग प्रासाद में कौन-कौन से और कैसे-कैसे होते हैं, ये ही पर्यायवाची शिल्‍पग्रंथों में प्रयुक्‍त हैं -
 
  • उपपीठ (पांव तल),
  • अधिष्‍ठान (तल से ऊपरीभाग जिसमें पीठ, उपान, प्रति अंग होते हैं),
  • जानु मण्‍डल (जंघा भाग),
  • पादवर्ग (पांव, स्‍तम्‍भ, अंघ्रि, चरण),
  • कराकरम् (भुजाएं, न्‍यग्रोध),
  • प्रस्‍तार व बाहुमूलम (भुजाएं),
  • कण्‍ठ (गल या ग्रीवा),
  • गुल (ठुड्डी),
  • आस्‍य (मुख भाग),
  • महानासी या अल्‍पनासी (नाक, नासिका),
  • कर्ण (कान),
  • शिखर (सिर का भाग),
  • शृंग, उरुशृंग (शिरोपरिभाग),
  • स्‍तूपी (सिर के केश आदि),
  • शिखा या ध्‍वजा (सिर के ऊंचे, खुले केश)।
 
प्रासाद का यह रूप जहां भी मिलता है, वह एक काया रचना ही लगता है, देखियेगा। भारतीय और मिस्र आदि के प्रासादो में तुलनात्‍मक रूप में यह अंतर बहुत अधिक है। इसके अंगों के ताल और मान पर हजारों श्‍लोक मिल हैं और सबमें अनुपात पर ही जोर दिया गया है,,, वह विवरण कभी फिर।
 
- डॉ. श्रीकृष्‍ण 'जुगनू'

महाविश्‍वकर्मपुराणम् का प्रकाशन

मित्रो, इस वर्ष के अंतिम दिनों में महाविश्‍वकर्मपुराण का प्रकाशन हुआ है। प्राचीन तेलुगु पाठ से देवनागरी में अक्षरान्‍तर के बाद एक एक श्‍लोक का अनुवाद कर इसका प्रकाशन संभव हुआ है। तैंतीस अध्‍यायों में शिल्‍पकारों के समुदाय, उनके गोत्र, प्रवर सहित उनके स्‍मृति शास्‍त्र का इसमें सम्‍यक परिपाक मिलता है।

यह औपपुराणों की कोटि का पुराण है। कतिपय ग्रंथ भंडारों में इसकी पांडुलिपि स्‍तंभपुराण के नाम से भी मिलती है।

यह ग्रंथ मुझे श्रीकोल्‍लोजु श्रीकांताचार्य ने भेजा और दिन रात लगकर करीब एक माह में इसका टंकण और सुरुचिपूर्ण पृष्ठवार संयोजकर कर सचित्र प्रकाशन योग्‍य बनाया। उपयोग बढाने के लिए इसमें प्राचीन 'शिल्‍पसार' नामक ग्रंथ का पाठ भी पहली बार प्रकाशित किया गया है। मित्रों ने इसकी प्राप्ति के लिए पूछा है, इस प्रसंग में मेरा निवेदन है कि इसकी प्राप्ति के लिए इस पते पर संपर्क किया जा सकता है -

श्री परिमल जोशी,
परिमल पब्लिकेशंस,
27, 28 शक्तिनगर, दिल्‍ली 110007
फोन नंबर है - 09891143247

प्रासाद स्‍तवन - आठ-आठ देव प्रासाद

धार के परमार नरेश राजा भोज (1015-1045 ई.) के लिखे 'समरागण सूत्रधार' में प्रासादों की प्रशस्ति में ऐसे 64 प्रकार के मंदिरों का उल्‍लेख है जो प्रशंसा के योग्‍य हैं। इसमें चौंसठ मंदिरों का जिक्र है और उनको संबंधित देवताओं के लिए बनाने का निर्देश है। प्रत्‍येक देवता के लिए आठ आठ प्रकार के प्रासाद बताए गए हैं। ये प्रासाद शिव, विष्‍णु, ब्रह्मा, सूर्य, चंडिका, गणेश, लक्ष्‍मी और अन्‍य देवताओं के लिए हैं। प्रासादों की शैली या देवताओं की प्रतिष्‍ठा के अनुसार उनके लक्षणों को पहचाना जा सकता है।
  • 1. शिव प्रासाद - विमान, सर्वतोभद्र, गजपृष्ठ, पद्मक, वृषभ, मुक्‍तकोण, नलिन और द्राविड।
  • 2. विष्‍णु प्रासाद - गरुड, वर्धमान, शंखावर्त, पुष्‍पक, गृहराज, स्‍वस्तिक, रुचक और पुंडवर्धन।
  • 3. ब्रह्मा प्रासाद - मेरु, मंदर, कैलास, हंस, भद्र, उत्‍तुंग, मिश्रक व मालाधर।
  • 4. सूर्य प्रासाद - गवय, चित्रकूट, किरण, सर्वसुंदर, श्रीवत्‍स, पद्मनाभ, वैराज और वृत्‍त।
  • 5. चडिका प्रासाद - नंद्यावर्त, वलभ्‍य, सुपर्ण, सिंह, विचित्र, योगपीठ, घंटानाद व पताकिन।
  • 6. विनायक प्रासाद - गुहाधर, शालाक, वेणुभद्र, कुंजर, हर्ष, विजय, उदकुंभ व मोदक।
  • 7. लक्ष्‍मी प्रासाद - महापद्म, हर्म्‍य, उज्‍जर्यन्‍त, गन्‍धमादन, शतशृंग, अनवद्यक, सुविभ्रान्‍त और मनोहारी।
इसके अलावा वृत्‍त, वृत्‍तायत, चैत्‍य, किंकिणी, लयन, पट्टिश, विभव और तारागण नामक प्रासाद और बताए गए हैं जो सभी देवताओं के लिए हो सकते हैं। यहां लयन प्रासादों का विवरण रोचक है, यह पर्वतों को काटकर बनाए गए गुहागृहों या प्रासादों के लिए है (जैसा कि अलोरा का चित्र दिखा रहा है), ये कौतुक है या सचमुच,,, बस सोचना है।
इसके बारे में कभी फिर...

 

तुला : कैसी, कितनी तुला

आज तो बाजार मे नित नए तौल करने के यंत्र देखने को मिलते हैं। ताकड़ी, कांटा, तराजू, तल... पलड़ों वाले तराजु से लेकर कमानीदार तुला और अब इलेक्‍ट्रॉनिक बेलेंस तक आ चुके हैं। मगर, पारंपरिक तुला शायद सब्‍जी बेचने वालों के पास ही देखने को मिले जहां आज भी बटखरों का प्रयोग होता है,, शायद पत्‍थर के बटखरे आज भी मिल जाए।
चाणक्‍य ने तुला का वर्णन किया है, पुराणों में तुलादान का वर्णन मिलता है। शिलालेखों में भी तुला पुरूष के दान का विवरण मिल जाता है। तुलजा भवानी की मान्‍यता भी रही है। क्षेमेंद्र ने तुला के प्रयोग और उनके बटखरों के बारे में जो जान‍कारियां दी हैं, वे प्राचीन काल ही क्‍या, आज भी लगता है जीवंत है।
 
तराजू सोलह तरह की होती थी, नाम याद हैं। देखियेगा -
  • वक्रमुखी (बांके कांटे वाली),
  • विषमपुटा (नीची ऊंची),
  • सुषिर तला (पलड़ों में छेद वाली),
  • न्‍यस्‍त पारदा (पारे से भरी),
  • मृद्वी (मुलायम पत्‍तर से बनी हुई),
  • पक्षकटा (बगल कटी),
  • ग्रंथिमती (गांठ पड़ी डोरी वाली),
  • बहुगुणा (बहुत ही डोरियों वाली),
  • पुरोनम्रा (आगे की ओर झुकी हुई),
  • वातभ्रांता (हवा से डगमगाने वाली),
  • तन्‍वी (हल्‍की),
  • गुर्वी (भारी),
  • परुषवात घृतचूर्णा (तेज हवा में धूल को जमा करने वाली),
  • निर्जीवा एवं
  • सजीवा।
है न तुला के अजीबो गरीब प्रकार, मगर इन पर सहज ही विश्‍वास होता है। और भी कई प्रकार हो सकते हैं। हमारे यहां रोड़ा और कांटा भी शब्‍द आए हैं -
 
"काली घणी कुरूप, कस्‍तूरी कांटा तुले।
सक्‍कर घणी सरूप, रोडा तुलै राजिया।।"
 
और हां,, बटखरे कैसे कैसे - सोपस्‍नेह (चिकनाई वाले बाट), स्‍वच्‍छ (चिपचिपे), सिक्‍थक मुद्र: (मोम लगाकर वजन बढ़ाये गए), बालुका प्राय (रेत लगाए गए)। सिंधु घाटी सभ्‍यता से लेकर आज तक बटखरों का इतिहास रोचक रहा है। कभी फिर,, इन बटखरों के मान प्रमाण के बारे में...।

रसायन : भारतीयों की अप्रतिम देन

कीमियागरी यानी कौतुकी विद्या। इसी तरह से भारतीय मनीषियों की जो मौलिक देन है, वह रसायन विद्या रही है। हम आज केमेस्ट्री पढ़कर सूत्रों को ही याद करके द्रव्यादि बनाने के विषय को रसायन कहते हैं, मगर भारतीयों ने इसका पूरा शास्त्र विकसित किया था। यह आदमी का कायाकल्प करने के काम आता था। उम्रदराज होकर भी कोई व्यक्ति पुन: युवा हो जाता और अपनी उम्र को छुपा लेता था।
पिछले दिनों भूलोकमल्ल चालुक्य राज सोमेश्वर के 'मानसोल्लास' के अनुवाद में लगने पर इस विद्या के संबंध में विशेष जानने का अवसर मिला। उनसे धातुवाद के साथ रसायन विद्या पर प्रकाश डाला है। बाद में, इसी विद्या पर आडिशा के राजा गजधर प्रतापरुद्रदेव ने 1520 में 'कौतुक चिंतामणि' लिखी वहीं ज्ञात-अज्ञात रचनाकारों ने काकचंडीश्वर तंत्र, दत्तात्रेय तंत्र आदि कई पुस्तकों का सृजन किया जिनमें पुटपाक विधि से नाना प्रकार द्रव्य और धातुओं के निर्माण के संबंध में लिखा गया।


मगर रसायन प्रकरण में कहा गया है कि रसायन क्रिया दो प्रकार की होती है-

1 कुटी प्रवेश और
2 वात तप सहा रसायन।
मानसोल्लास में शाल्मली कल्प गुटी, हस्तिकर्णी कल्प, गोरखमुंडी कल्प, श्वेत पलाश कल्प, कुमारी कल्प आदि का रोचक वर्णन है, शायद ये उस समय तक उपयोग में रहे भी होगे, जिनके प्रयोग से व्यक्ति "चिरायु होता, बुढापा नहीं सताता, सफेद बाल से मुक्त होता..."
जैसा कि सोमेश्वर ने कहा है -
"एवं रसायनं प्रोक्तमव्याधिकरणं नृणाम्। नृपाणां हितकामेन सोमेश्वर महीभुजा।।" (मानसोल्लास, शिल्पशास्त्रे आयुर्वेद रसायन प्रकरणं 51)
ऐसा विवरण मेरे लिए ही आश्चर्यजनक नहीं थी, अपितु अलबीरूनी को भी चकित करने वाला था। उसने कहा था-
' कीमियागरी की तरह ही एक खास शास्त्र हिंदुओं की अपनी देन है जिसे वे रसायन कहते हैं। यह कला प्रायः वनस्पतियों से औषधियां बनाने तक सीमित थी, रसायन सिद्धांत के अनुसार उससे असाध्य रोगी भी निरोग हो जाते थे, बुढापा नहीं आता,,, बीते दिन लौटाये जा सकते थे, मगर क्या कहा जाए कि इस विद्या से नकली धातु बनाने का काम भी हो रहा है। (अलबीरुनी, सचाऊ द्वारा संपादित संस्करण भाग पहला, पेज 188-189)
है अविश्वसनीय मगर, विदेशी यात्री की मुहर लगा प्राचीन भारतीय रसायन विज्ञान...। इस विषय पर आपके विचार भी सादर आमंत्रित है।