बुधवार, 25 मार्च 2015

गाथा गेंद की... खेलते हुए सुनियेगा

बॉल हमारी बहुत जानी पहचानी है। बॉल यानी गोल, गोल यानी बॉल। दादी-दादा खेले। माता-पिता खेले। हम खेले और हमारे बाद बेटी-बेटे। बॉल सबकी प्रिय से भी प्रिय है। कई खेलों का आधार है बॉल। यदि बॉल है तो खेल है, बस हाथ में आ जाए तो खेलने की तरकीब हम ढूंढ ही लेते हैं। बॉल पकड़ी जाती है। फेंकी जाती है। उछाली और झेली जाती है। धकेली तथा चलाई भी जाती है... इस बॉल  ने हर सभ्‍यता और संस्‍कृति में अपनी मौजूदगी दिखाई है, चाहे माया जैसी सभ्‍यता ही क्‍यों न हो, जिसकी तस्‍वीर मिली है। अन्‍यत्र उत्‍खननों में साबुत बॉलें मिली हैं....। नाम तो है इसका गेंद या गेंदू मगर संस्‍कृत में कन्‍दुक कहा जाता है। यह 'क' हमारे मुखलाघव के लिए 'ग' में बदल गया है, वैसे ही जैसे प्रकट को प्रगट बोलने में सहुलियत होती है, कुछ नियमों के तहत प्राक् भी प्राग् हो जाता है..।

नींबू, नारियल, कपित्‍थ या कबिती और बेल जैसे किसी फल को देखकर बॉल का निर्माण किया गया होगा। बात गेंद की हो रही है। उत्‍खननों, खासकर हड़प्‍पाकालीन कानमेर-गुजरात याद आता है जहां बजने वाले गेंद भी मिले हैं..। कहीं दौड़ लगवाने वाली होने से इसका नाम दोड़ी या दड़ी पड़ गया तो कहीं डोट या पीटने वाली होने से डोट कहलाई...।

यो तो बालकों को यह बहुत रुचिकर लगती है। हरिवंश में श्रीकृष्‍ण के कंदुक खेल पर तो कई श्‍लोक मिल जाते है, उसको खोजने की आड़ में कालिया नाथ लिया गया...। नारियों ने भी गेंदों की कई क्रीड़ाएं दिखाई हैं तभी तो 'मूंछों पर नींबू ठहराने' जैसी कहावत की तरह 'कूर्पर (कोहनी) पर कंदुक दिखाना' जैसी कहावत भी रही होगी। क्‍यों नहीं, कुषाणकालीन एक वेदिका स्‍तंभ पर ऐसा मोटिफ भी है, जिसमें नायिका अपनी कोहनी पर कंदुक को लिए कौतुक रच रही है।

मृच्‍छकटिकं के रचयिता शूद्रक जैसे रचनाकार को यह खेल इतना भाया कि अपने एक भाण में उन्‍होंने विट के मुंह से इसकी प्रशंसा करवाई कि इस खेल में शरीर की कई क्रियाएं संपन्‍न होती हैं। इन अंग संचालनों में नत, उन्‍नत, आवर्तन, उत्‍पतन, अपसर्पण, प्रधावन वगैरह वगैरह। विट स्‍वयं इन संचालनों को पसंद करता था। उसने सखी-सहेलियों के साथ प्रियंगुयष्टिका नामक एक नायिका की कंदुक क्रीड़ा का वर्णन करते हुए सौ बार गेंद उछालने पर जीतकर खिताब लेने का संदर्भ दिया है... गुप्‍तकाल की यह दास्‍तान है। अनेकानेक मंदिरों में यह क्रीड़ा अनेकत्र देखी जा सकती है। ऐसी नायिकाओं को 'कंदुकक्रीड़ाकर्त्री' के रूप में शिल्‍पशास्‍त्रों में जाना गया है।
है न नन्‍हीं सी गेंद की गौरवशाली गाथा...।

शीतला - चेचक की देवी की विश्‍वयात्रा !

साथियो ! राजस्थान में होली के सात दिन बाद शीतला सप्‍तमी का पर्व मनाया जाता है इसके एक दिन पूर्व महिलाएं बासोडा अर्थात रसोई की ठंडी सामग्री की तैयार करती है। वे रात में खाना बनाती है और सुबह शीतला की पूजा करके, कथा सुनकर सबको बासोडा या ठंडा खाना खिलाती है। महिलाएं अपने हाथ से इस दिन आग जलाने जैसा काेई काम नहीं करती है। इसके पीछे उसका मकसद यह रहता है कि बच्‍चे बच्चियों को कभी चेचक जैसी बीमारी नहीं हो। इस दिन मां शीतला के गीत गाए जाते हैं - 
सीळी सीळी ए म्‍हारी सीतळा ए माय.. बारुडा रखवाळी सोहे सीतला ए माय...।
इस महाव्‍याधि चेचक का उन्‍मूलन हुए बरस हो गए मगर शीतलादेवी अब भी पूजा के अन्‍तर्गत है। साल में चैत्री कृष्‍णा सप्‍तमी और भादौ कृष्‍णा सप्‍तमी को शीतला की पूजा की जाती है। पश्चिमी भारत ही नहीं, पूरे देश में शीतला की पूजा की जाती है, कई नामों से इसकी प्रतिष्‍ठा है मगर यह ब्राह्मण देवी नहीं मानी गई अन्‍यथा इसके भी पूजा विधान प्रारंभिक शास्‍त्रों में लिखे होते।
इस देवी का स्‍वरूप 12वीं सदी में संपादित हुए स्‍कन्‍दपुराण में आया है और मंत्र के रूप में इसको दिगम्‍बरा, रासभ या गधे पर सवार, मार्जनी-झाडू व कलश लिए तथा शूर्प से अलंकृत बताई गई है -
 
नमामि शीतलादेवी रासभस्‍था दिगम्‍बरा। मार्जनी कलशोपेता शूर्पालंकृता मस्‍तका।।
 
मध्‍यकाल में इसकी मूर्ति बनाने के लक्षण मेवाड में 1487 ईस्‍वी में रचित वास्‍तुमंजरी आदि में लिखे गए।
प्रयाग के रामसुन्‍दर ने शीतला चालीसा को लिखा जबकि 1900 में डब्‍ल्‍यू. जे. विल्किंस ने हिंदू माइथोलॉजी, वैदिक एंड पुराणिक में इस देवी की मान्‍यताओं का सिंहावलोकन किया है। दुनिया के कोई सात धर्मों में इसकी अलग अलग नामों से मान्‍यता मिलती है। जापान आदि में यह सोपान देव के नाम से योरूवा धर्म में है। हमारे यहां बौद्धकाल में हारिति देवी के नाम से एक मातृका की पूजा की जाती थी, जिसकी गोद में बालक होता था, बालकों की रक्षा के लिए इसको पूजा जाता था। गांधार से तीसरी सदी की हारिति की मूर्तियां भी मिली हैं। ऐसा माना जाता है कि इस तरह की मान्‍यताओं का निकास इस्रायल, पेलेस्‍टाइन से हुआ। खासकर उन व्‍यापारियों से इसको पहचाना गया जो बर्तन आदि वस्‍तुओं का विपणन करने निकलते थे।

यह चेचक जिसे smallpox की देवी मानी जाती है। चेचक की व्‍याधि पूतना के नाम से पृथक नहीं है। भारत में इस व्‍याधि का प्रमाण 1500 ईसा पूर्व से खोजा गया है जबकि मिस्र में इसके प्रमाण 3000 वर्ष पूर्व, 1145 ईसापूर्व के मिलते हैं। वहां के राजा रामेस्‍सेस पंचम और उसकी रानी की जो ममी मिली है, उसमें इस रोग का प्रमाण है। चीन में इसका प्रमाण 1122 ईसापूर्व का मिला है, चीन से यह व्‍याधि कोरिया होकर 735-737 में जापान पहुंची तो महामारी की तरह फैली और एक तिहाई आबादी प्रभावित हुई। भारत में औरंगजेब के शासनकाल के 16-17 सितंबर, 1667 ई. के एक फरमान से ज्ञात होता है कि शीतला के स्‍थानकों पर हिंदुओं और मुस्लिमों की भीड लग जाती थी, उनको नियंति करने के लिहाज से राजाज्ञा जारी करनी पडी थी। गांव गांव शीतला के स्‍थानक, मंदिर मिलते हैं। चाकसू, वल्‍लभनगर, सागवाडा आदि में मध्‍यकालीन मंदिर मिलते हैं।

है न चेचकी की देवी शीतला की विश्‍वयात्रा की रोचक कहानी। हमारे यहां तो होली के दहन के दूसरे दिन से लेकर सात दिनों तक रोजाना महिलाएं उठते ही शीतला माता को ठंडी करने जाती है, इन दिनों को ही अगता मानकर उनका पालन करती हैं... एक व्‍याधि के शमन के लिए देवी की पूजा की मान्‍यता हमारी आस्‍था की पगडंडियों को मजबूती देती दिखाई देती है।

मंगलवार, 24 मार्च 2015

निसारदी : रागमाला चित्र सर्जक

मुगलकाल में मेवाड़ और अकबरी दरबार के बीच एक सांस्‍कृतिक प्रतिस्‍पर्द्धा भी रही। महाराणा प्रताप के काल में निसारदी नामक चित्रकार ने चावंड में रहकर जिन चित्रों की शृंखला रची, वह रागमाला के नाम से इतिहास प्रसिद्ध है। निसारुद्दीन ने अपने चित्रों पर निसारदी नाम से हस्‍ताक्षर किए हैं। उसने अपना सृजन 1596 से आरंभ किया और 1605 तक निरंतर रखा। यानी दो महाराणाओं के कार्यकाल तक यह कार्य हुआ। इसे महाराणा प्रताप (1572-1597 ई.) ने आरंभ किया और महाराणा अमरसिंह (1597-1615 ई.) के शासनकाल में पूरा हुआ। से रागमाला की इस चित्र श्रृंखला के बाद अन्‍यत्र भी रागमाला चित्र-श्रृंखलाएं बनीं। मेवाड में भी एक दूसरी रागमाला श्रृंखला साहबदीन ने तैयार की।

ताज्‍जुब इस बात का है कि रागमाला के नाम से कृतियों का सृजन अकबर के दरबार में हुआ था। प्रसिद्ध गायक तानसेन और विट्ठल पुंडरीक ने 'रागमाला' नाम से पुस्‍तकें लिखी हैं। विट्ठल पुंडरीक को जयपुर के कछवाहा वंश का संरक्षण प्राप्‍त था और तानसेन को अकबर का। मगर, इस कृति पर चित्रों की श्रृंखला खड़ी करने का श्रेय मेवाड़ को मिला।
मेवाड़ को यूं तो मुगल नीति विरोधी माना गया मगर इसी धरती पर रागमाला रची गई। है न दोनों सत्‍ताओं के बीच टकराव के दौर में सृजन के संकल्‍प का सुख और सौहार्द्र। यह शृंखला बहुत चर्चित रही। इसमें कम से कम 42 चित्र बनें। ये छह राग और 36 रागिनियों के थे। मारुराग के चित्र पर तो भारतीय डाक तार विभाग ने डाक टिकट भी जारी किया है।
(प्रस्‍तुत चित्र सोरठ रागिनी का है, गुजरात मूल की इस रागिनी में नायिका नायक तो तांबूल दे रही है। सोरठी गीतों में इस प्रकार की मनुहार परम्‍परा के गीतों की राग कभी सोरठी के नाम से ख्‍यात रही हो, यह सोचा जाना चाहिए।)

शनिवार, 21 मार्च 2015

परमारों का एक दुर्लभ अभिलेख

मित्रो, परमार राजवंश ने अपने समय को बहुत शानदार ढंग से जीया है, कई गौरवशाली राजा इस वंश में हुए हैं। इस वंश की उत्‍पत्ति भी अंग्निवेदी से मानी गई है... इस वंश के उद्भव के साक्षी के रूप में Kutch Itihas Parisad ने मुझे एक दुर्लभ शिलालेख भेजा है, उनके इस उपहार के लिए आभार,,, इसमें परमारों के मुनि द्वारा नामकरण का विचार आया है।
 
इसके अनुसार परमार धवल ने वल्‍लाल को मारा जो कि मालवा का शासक था। यह अन्‍य शासकों के बारे में भी जानकारी देती है,, प्रारंभिक देवनागरी लिपि के रूप में इसकाे देखना चाहिए जबकि ई की मात्रा को तो लिखा जाता था मगर ऐ की मात्रा को अक्षर से पूर्व ही खड़ी पंक्ति के रूप में लिखा जाता था। यह संस्‍कृत में लिखा गया है। 

इसका कुछ पाठ इस प्रकार पढ़ा जा सकता है--

इतश्‍च, अस्ति श्रीमानर्बुदाख्‍योद्रि मुख्‍य: शृंगश्रेणिर्बिभ्रदभ्रलिहो य:।
वृद्धिं विंध्‍य: किंपुनर्यात्‍य सावित्‍यादित्‍यस्‍य भ्रांतिमंतर्विधत्‍ते।। 10।।
तत्राथ मैत्रावरुणस्‍य जुद्वतश्‍चंडोग्नि कुण्‍डात्‍पुरुष: पुरो भवत।
मत्‍वा मुनींद्र: परमारणक्षमं स व्‍याह रत्‍तं परमार संज्ञया।। 11।।
पुरा तस्‍यान्‍वये राजा धूमराजाद्वयो भवत्।
येन धूमध्‍वजेन दग्‍धा वंशा: क्षमाभृताम्।।
12।।
अपरेपि न संदग्‍धा धधूध्रुव भटादय।
जाता: कृताहवोत्‍साह बाहवो बहवस्‍तत।। 13।।
तदनन्‍तरमभ्रंगित कीर्तिसुधा सिन्‍धु: शुंधित व्‍योमा।
श्रीरामदेवनामा कामादपि सुन्‍दर: सो भूत्।। 14।।
तस्‍मान्‍महीवविदितान्‍य कलत्र गात्र स्‍पर्शोयशो धवल इत्‍यवलम्‍बते स्‍म।
यो गुर्जरक्षितिपति पक्षमाजौ बल्‍लालमालभत मालवमेदिनीद्रम्।। 15।। इत्‍यादि।
 
बहुत खोजबीन से विदित हुआ है कि यह अभिलेख वीर विनोद नामक इतिहास ग्रंथ के भाग द्वितीय में शेष संग्रह के 11वें क्रम पर 1884 ई में प्रकाशित हुआ है, यह 14वीं सदी के पूर्वार्द्ध के किसी वर्ष का होना चाहिए, इसमें परमारों के मूल पुरुष धूमराज को बताया गया है और रामदेव के लिए कहा गया है वह अपने वंश में बहुत सुंदर था, उसके पुत्र धवल ने कुमारपाल के शत्रु मालवा के बल्‍लाल का हनन किया था, उसके पुत्र धारावर्ष ने कोंकण के राजा का वध किया, उसके अनुज प्रहलादन की वीरता व सोमसिंह के शौर्य का विवरण भी यह प्र‍श‍स्ति देती है..., हालांकि इस प्रशस्ति के अनेक अक्षर खंडित है और संवत की जानकारी देने वाली पंक्ति भी नदारद है... आबू वसिष्‍ठ के यज्ञ के लिए महशूर है किंतु इस प्रशस्ति में वसिष्‍ठ के पिता, उर्वशी के स्‍वामी मित्रावरुण को यज्ञकर्ता कहा है... वे यायावरी के लिए ख्‍यातनाम रहे।

शालिहोत्र - राजाभोज का एक अल्‍पज्ञात शास्‍त्र

धारा के परमार नरेश राजा भोज अपने साहित्यिक अवदान के लिए मशहूर हैं। उनके नामों की उपाधियां चौरासी, दरबार में विद्वान चौरासी, उनकी लिखी किताबें चौरासी,,, उनकी उम्र चौरासी थी या नहीं, यह तो मालूम नहीं, मगर चित्‍तौड़गढ़ में कुमारकाल बिताने के बाद 1010 से 1050 ई. तक भोजराज ने राज्‍य किया और अपने समय के श्रेष्‍ठ सर्जकों को अपने राजदरबार में आश्रय दिया। स्‍वयं ने भी कृपाण ही नहीं, कलम उठाई और कई ग्रंथ लिखे, उनका लिखा एक ग्रंथ 'शालिहोत्रम्' है।

शालिहोत्र अश्‍व का पर्याय है और युद्धोपयोगी इस पशु ने मानव की जो सहायता की, वह रोचक है। जानवरों के स्‍मारकों के रूप में सिकंदर के समय से ही अश्‍व की समाधियां बनती रही हैं। चाहे महाराणा प्रताप का अश्‍व चेटक ही क्‍यों न हो। अश्‍व विद्या पर भोज ने जिस शालिहोत्रम् की रचना की, वह संक्षिप्‍त किंतु गागर में सागर में भरने वाली कृति है। हालांकि अश्‍वपालन, अश्‍वशाला व अश्‍वों के आहार आदि पर भोज ने समरांगण सूत्रधार में भी पर्याप्‍त लिखा है, वह पहला ग्रंथ है जिसमें पहली बार संक्रमण से बीमारी होने की जानकारी दी गई है।

शालिहाेत्र में कुल 138 श्‍लोक हैं और ग्रंथकार ने अश्‍व पालन-पोषण, चिकित्‍सा आदि पर पर्याप्‍त रूप से जानकारी दी है। वह कहते हैं कि वर्णों के आधार पर श्‍वेत, लाल, पीले, सारंग, पिंग, नीले और काले घोड़े होते हैं किंतु उनमें सफेद अश्‍व श्रेष्‍ठ होता है - सितो रक्‍तस्‍तथा पीत: सारंग: पिंग एव च। नील: कृष्‍णोथ सर्वेषां श्‍वेत: श्रेष्‍ठ‍तम:स्‍मृत:।। इसके बाद घोडों की भंवरियां या आवर्त के बारे में लिखा गया है। अश्‍व की ऊंचाई आदि के प्रमाण के बाद उनके वेग, उन पर आरोहण, श्‍लेष्‍म रक्‍तलक्षण आदि की जानकारी दी गई है। रक्‍तमोक्षण में कहा गया है कि अश्‍वर के शरीर में 72 हजार नाडियां होती है और उसके आठ द्वार होते हैं। भोज ने अश्‍व की ऋतुचर्या को लिखने बाद शरद काल, हेमंत, शिशिर एवं वसंत कालीन रोगों की चिकित्‍सा की जानकारी है। घोड़ों के नस्‍य, पिण्‍ड के क्रम में वे विजलिका नामक औषधि का जिक्र करते हैं जो अश्‍वों को बल देने वाली है। इस ग्रंथ पर प्राचीनकाल में नकुल के लिखे 'अश्‍वचिकित्‍स' ग्रंथ का पूरा प्रभाव है।

आज ग्रंथों को पढ़ते-पढते ही शालिहोत्र हाथ आ गया तो सोचा कि यह जानकारी आपको भी मिले। यूं भारतीयों के पास अश्‍व के संबंध में लगभग दो दर्जन ग्रंथ है, मगर आज उनमें से एकाध की जानकारी भी शायद ही हो। कभी अश्‍व विद्या का पठन-पाठन हर आम ओ खास के लिए आवश्‍यक होता था क्‍योंकि तब असवारी (सवारी) का मतलब भी 'अश्‍व-सवार' लिया जाता था। यातायात के लिए यह बेहतर सवारी थी।

टोपी - कितनी पुरानी

लीजिये, इन दिनों हम सर्दी से बचाव को टोपी जरूर पहन रहे हैं। मुहावरों में तो टोपी पहनना और टाेपी पहनाना, इसकी टोपी उसके सिर, टोपी कुतर देना... इन से सब कोई परिचित है। भारत टोपियों से बहुत पुराने काल से परिचित रहा है। कपड़े, ऊन, दुकूल आदि की टोपियां बनती आर्इं हैं मगर वृक्षों के पत्‍तों की टोपियां भी पत्रपुट के नाम से चलन में रही, हालांकि उनका उपयोग दोने के रूप में अधिक हुआ।
क्षेमेंद्र ने वेशभूषाओं के जो चित्र अपने ग्रंथों में दिए हैं, उनमें तत्‍कालीन शब्‍दों का अच्‍छा प्रयोग किया है। जब मोजे चलन में आ गए थे, मोचोट शब्‍द का प्रयोग यही बताता है। यह फारसी के मुज़ा शब्‍द के निकट है। इन शब्‍दों में में टोपी के लिए भी शब्‍दों का व्‍यवहार हुआ है, भाषा का वेशभाषा के अनुसार प्रयाेग उनकी अपनी विशेषता है -

  1. टुप्पिका - टोपी

  2. कनटोप - घोघी

  3. शिर:शांटक -पाग जैसी टोपी या सफेद पग‍ड़ी

  4. सुसूक्ष्‍म दल विन्‍यास विभागोन्‍नत टुप्पिकम् - नमदा अथवा पट्टू की लघु कतरनों से बनी हुई टोपी जो किनारों पर उठी हुई होती थी

  5. उन्‍नत शिखर वेष्‍टन - सिर को बांधने वाली पाग या लपेटी गई टोपी

  6. शिरोशुक : घूंघट या मुख को ढंकने वाली टोपी जैसी रचना।

शिवधर्मपुराण जिसकी रचना हर्षवर्धन-बाणभट्ट के काल के आसपास हो चुकी थी में शिव को टोप भेंट करने का संदर्भ आया है। प्राचीन काल में शिवालयों में शरदका में टोपी दान करने के अनुष्‍ठान होते थे। दानखंडों में आए दानकृत्‍यों में टोपी दान करने के पुण्‍य भी लिखे गए हैं।
है न ये सब रोचक शब्‍द, हमारे लिए कुछ तो परिचित हैं और कुछ अपरिचित। मगर, इनमें से कुछ का आशय हम अपनी सुविधा के अनुसार करते आए हैं। शिव के लिंग पर टोप को धारण करवाया जाता रहा है। (यह चित्र प्रकाश मांजरेकर का उपहार है)

वज्रसंघात लेप : अद्भुत धातु मिश्रण

लोहस्‍तंभ को देखकर किसे आश्‍चर्य नहीं होता। यह किस धातु का बना कि आज तक उस पर जंग नहीं लगा। ऐसी तकनीक गुप्‍तकाल के आसपास भारत के पास थी। हां, उस काल तक धातुओं का सम्मिश्रण करके अद्भुत वस्‍तुएं तैयार की जाती थी। ऐसे मिश्रण का उपयोग वस्‍तुओं को संयोजित करने के लिए भी किया जाता था। यह मिश्रण '' वज्रसंघात '' कहा जाता था।
शिल्पियों की जो शाखा मय नामक शिल्पिवर के मत स्‍वीकारती थी, इस प्रकार का वज्र संघात तैयार करती थी। उस काल में मय का जाे ग्रंथ मौजूद था, उसमें इस प्रकार की कतिपय विधियों की जानकारी थी, हालांकि आज मय के नाम से जो ग्रंथ हैं, उनमें शिल्‍प में मन्दिर और मूर्ति बनाने की विधियां अध्‍ािक है, मगर 580 ई. के आसपास वराहमिहिर को मय का उक्‍त ग्रंथ प्राप्‍त था। वराहमिहिर ने मय के मत को उद्धृत करते हुए वज्रसंघात तैयार करने की विधि को लिखा है-

अष्‍टौ सीसकभागा: कांसस्‍य द्वौ तु रीतिकाभाग:।
मय कथितो योगोsयं विज्ञेयाे वज्रसंघात:।। (बृहत्‍संहिता 57, 8)

मय ने 8 : 2 :1: अनुपात में क्रमश: सीसा, कांसा और पीतल को गलाने का नियम दिया था, इससे जो मिश्रण बनता था, वह वज्रसंघात कहा जाता था। यह कभी नहीं हिलता था और वज्र की तरह चिपकाने के काम आता था। वराहमिहिर के इस संकेत के आधार पर 9वीं सदी में कश्‍मीर के पंडित उत्‍पल भट ने खाेजबीन की और मय का वह ग्रंथ खोज निकाला था। उसी में से मय का वह श्‍लोक वराहमिहिर की टीका के साथ लिखा था-

संगृह्याष्‍टौ सीसभागान् कांसस्‍य द्वौ तथाशंकम्।
रीतिकायास्‍तु संतप्‍तो वज्राख्‍य: परिकीर्तित:।।


आज वह ग्रंथ हमारे पास नहीं। मगर, इस श्‍लोक में कहा गया है कि इस मिश्रण के लिए सभी धातुओं को मिलाकर तपाया जाता था। इसके लिए उचित तापमान के संबंध में जरूर शिल्पियों को जानकारी रही होंगी, वे उन मूषाओं के बारे में भी जानते रहे होंगे, जो काम आती थीं। मगर, क्‍या हमारे पास इस संबंध में कोई जानकारी है,,, बस यही तो समस्‍या है।

उज्‍जयिनी चिह्न : जिसे मुद्रा पर मान्‍यता मिली


बात 124 ईस्‍वी की होगी। सातवाहन राजा गौतमीपुत्र शातकर्णी ने क्षहरात क्षत्रप नहपान के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए युद्ध का निश्‍चय किया और महाराष्‍ट्र के पास जुन्‍नर नामक जगह पर न केवल उसके शिकस्‍त दी बल्कि तलवार के घाट भी उतार भी दिया। नहपान (119-124 ई.) मुद्रा के सहारे त्रिभाषा सूत्र का पहला प्रयोगधर्मी था। उसके सिक्‍के चांदी के होते थे और सिक्‍कों पर पूर्वभाग पर उसकी छवि के साथ ही यूनानी लेख था जबकि पृष्‍ठभाग पर वज्र सहित बाण जैसे आयुध के साथ तत्‍कालीन ब्राह्मी लिपि में ''राज्ञो क्षतृरातस नहपानस'' और खरोष्‍टी लिपि में ''रजो छहरतस नहपनस'' लेख उत्‍कीर्ण होता था।

गौतमीपुत्र शातकर्णी ने नहपान पर जीत दर्ज करने के साथ ही उसके अधिकार क्षेत्र की टकसाल सहित जन-सामान्‍य से सिक्‍कों का संग्रह किया। यों तो पहले के शासक जीत के बाद हारे हुए शासकों के सिक्‍कों को गलाकर अपनी मुद्रा जारी करते थे लेकिन शातकर्णी ने नहपान के सिक्‍कों को गलाया नहीं। उसने उन सिक्‍कों के पुनर्लांछित या पुनर्टंकित किया। नासिक के पास जोगळटेंभी नामक जगह से नहपान के गड़े हुए 13,250 सिक्‍के मिले हैं जिनमें से 9270 सिक्‍कों को पुनर्चक्रण के लिए पुनर्टंकित किया गया है। इससे पूर्व इस प्रकार का एक प्रमाण सिकंदर के सिक्‍के का मिलता है।

राजाज्ञा से पुनर्चिह्न के रूप में नहपान के सिक्‍के पर मेरुगिरि पर उदित होते हुए चंद्रमा या सूर्य और 'उज्‍जयिनी चिह्न' का प्रयाेग किया। यह चिह्न उससे पहले प्रयोग में था या नहीं, मालूम नहीं मगर इस चिह्न ने सिक्‍कों पर एक शैवनगरी को प्रतीकात्‍मक रूप से महत्‍वपूर्ण बनाया। इस चिह्न के रूप में दो डेंबल्‍स का प्रयाेग किया गया है अथवा चार वृत्‍तों का, यह विचारणीय है मगर चार वृत्‍त बहुत विचार के साथ प्रयोग में लाए गए हैं क्‍योंकि उन वृत्‍तों के भीतर छोटे वृत्‍त मिलते हैं, यह कुंड की मेखला की तरह है या जलहरी सहित शिवलिंग की तरह, यह विचारणीय है, क्‍योंकि वृत्‍तों के भीतर पुन: नंदिपद और स्‍वस्तिक के चिह्न बनाए गए हैं।

इस प्रकार के वृत्‍तादि का रूपांकन रेखांकन के संदर्भ में वैदिक शुल्‍बसूत्र से विचारित है। ये चार वृत्‍त चतुरंगिणी सेना के प‍रिचायक हैं अथवा चार सागर के क्‍योंकि उस काल तक पृथ्‍वी पर चार सागरों की मान्‍यता ही थी। ये चार संघों के बोधक भी हो सकते हैं या चार आश्रमों के... यह सोचने वाली बात हैं। मगर, यह जरूर हो सकता है कि महाकाल की नगरी को केंद्र माना गया था ऐसे में यह चिह्न विकसित हुआ हो। मगर, बात बड़ी रोचक है,, उज्‍जैन के पुराविद डॉ. रमन सोलंकी कहते हैं कि यह चिह्न उन मुद्राओं पर भी मिला है जो यहां से रोम पहुंची थी यानी रोम तक उज्‍जयिनी चिह्न स्‍वीकार्य रहा, और आज की मुद्रा... बस यही विचार योग्‍य है।
 

महासागर पर देवल...

पोकरण... प से होने वाला प्रारंभ। वही पोकरण जहां परमाणु बम के परीक्षण ने देश को 'जय विज्ञान' का नारा दिया। संस्‍कृत धर्मसूत्रों, पुराणों में जो 'पुष्‍करारण्‍य' नाम बहुत सम्‍मान के साथ आता है, उसको मरूभाषियों ने बहुत सम्‍मान के साथ 'पोकरण' या 'पोखरण' के रूप में बचाकर रखा है। यहां की इस ज़बानी गुण पर नाट्याचार्य भरत ने इसी‍लिए गुमान किया कि वे ओकारांत के रूप में मूल शब्‍द को सत्‍तावान रखते हैं। उत्‍तरभारत में फैला पोखरना गोत्र का समुदाय कहीं न कहीं इस क्षेत्र से अपना संबंध बताता है।

 यहां के एक 'दिवंगतीय देवल' या स्‍मारक के शिलालेख को भगवती स्‍वरूपा Kiran Rajpurohit Nitila ने भेजा है। उनका अनेक-अनेक आभार। यह अधिक पुराना नहीं है, 1930 ई. का ही है किंतु खास बात ये कि इसमें आजादी मिलने से पहले ही 'राजस्‍थान' शब्‍द का प्रयोग आया है और उसमें मारवाड़ को भी मान लिया गया था। यह चांपावत ठाकुर गुमानसिंह भभूतसिंहोत के स्‍मारक पर लगा है और राजस्‍थानी भाषा का अच्‍छा प्रयोग लिए है। लेखन में स्‍मृति को जीवंत करने के लिए गुमानसिंह के जन्‍म, गोद आने, टीका दस्‍तूर और दिवंगत होना वर्षवार लिखा गया है। यह अभिलेख यह जाहिर करता है कि वहां पितरों के स्‍मारक प्राय: जलस्रोतों के आसपास बनाए जाते थे। लोकगीतों में पितरों का वर्णन जलस्रोतों के आसपास अपने वस्‍त्रों को धोकर उजला करने का जिक्र भी आता है। जलाशयों के उत्‍सर्ग के क्रम में इष्‍टकर्म का जो विवरण मिलता है, वह भी इससे प्रामाणित होता है।

 शिलालेख का पाठ इस प्रकार है-

ऊं ।। स्‍वस्ति श्री राठोड़ वंशावतंस ठाकुरां राज. गुमानसिंहजी भभूतसिंहोत खांप चांपावत विट्ठलदासोत राजस्‍थान पोकरण मारवाड़, जन्‍म सं(व)त् 1904 रा काती बद 10, दासपा सूं खोले आया सं. 1919 रा फागण बद 5, राजतिलक बिराजिया संवत 1933 रा असाढ़ सुद 2, देवलोक हुवा सं. 1934 रा पोस बद 4, जिणां पर पोकरण में महासागर तलाब पर देवल करायो जिणरी प्रतिष्‍ठा आज संवत् 1987 रा फागण बद सोम में हुई।

पछमता - सिंधुघाटी के निवासियों के रिश्‍ते का गांव

सिंघुघाटी सभ्‍यता के निवासियों ने जिस भूमि से अपने लिए बहुत से संसाधन जुटाए, उस मेवाड़ क्षेत्र के पछमता गांव के टीलों की खुदाई में हाल ही कई चौंकाने वाले तथ्‍य उजागर हुए हैं। यहां जनार्दनराय नागर राजस्‍थान विद्यापीठ विश्‍व विद्यालय, केनेसा स्‍टेट यूनिवरसिटी अमेरिका तथा डेकन कॉलेज, पुणे के साझे में इन दिनों उत्‍खनन कार्य चल रहा है और हाल ही जो प्रमाण मिले हैं, वे जाहिर करते हैं कि वे करीब पांच हजार साल पुरानी भारतीय सभ्‍यता और संस्‍कृति की झलक लिए हैं। पछमता राजसमंद जिले का गांव है और बनास नदी के प्रवाह क्षेत्र में गिलूंड के पास ही बसा है। इसको आहाड़ और बनास सभ्‍यता का हिस्‍सा माना जाता है और इसके करीब 110 गांवों मे से एक हैं। सचमुच प्राचीनतम गांवों की शृंखला का मेवाड़ बडा क्षेत्र रहा है। बनास को वर्णासा के रूप में पुराणों और स्‍मृतियों में संदर्भित किया गया है। आयुर्वेद के प्राचीनतम ग्रंथों में इस नदी के जल के स्‍वाद और गुणधर्म की चर्चा की गई है। मैंने 'मेवाड़ का प्रारम्भिक इतिहास' में इस संबंध में चर्चा की है।

इस क्षेत्र को खेती के लिहाज से विकसित किया गया था। यह किसानों की बहुलता वाला गांव था। खेती को जीवन का आवश्‍यक अंग मानकर इस क्षेत्र को उत्‍पाद के लिए चुना गया था। उनके पास अपने कार्यों को अंजाम देने के लिए कांसा और जस्‍ता के औजार थे। हमें याद रखना चाहिए कि दुनिया को जस्‍ता देने का श्रेय मेवाड़ काे ही है। ये प्रमाण इस बात को पुष्‍ट कर रहे हैं कि करीब 2500 साल पहले सिंधु घाटी सभ्‍यता के निवासी कांसा और जस्‍ता प्राप्‍त करने के लिए यहां आते थे। यहां से सुरक्षा के लिहाज से बनाया गया परकोटा भी सामने आया है। मिट्टी के बर्तनों का निर्माण काली और लाल मृदा से तैयार किए जाते थे जिन पर खडिया से चित्रकारी की जाती थी। चूल्‍हों का निर्माण भी लाल मिट्टी से किया जाता था और उनको धूप में सेका जाता था। महिलाओं को चूडियां तब भी पसंद थी और खास बात ये कि वे विशेष आभूषण की तरह विशेष अवसरों के लिए बनाई गई थी... कई जानकारियां हैं जाे अभी सामने आएंगी और समय-समय पर राजस्‍थान विद्यापीठ से जुड़े, मित्रवर डाॅ. ललित पांडे बताएंगे। मेरे लिए यह खुशी का विषय है कि पछमता की पुरा सम्‍पदा के संबंध में कुछ सालों पहले मैंने अपनी किताब में खुलासा किया था।

सुमेरियन तंत्री वाद्य : भारतीय संदर्भ

नाट्यशास्‍त्र आदि में चार प्रकार के वाद्यों में तंत्रवाद्य का जिक्र आया है और इसमें वे वाद्य कोटिकृत किए गए हैं जिनके लिए तार का प्रयोग होता आया था। ऐसे वाद्य सुमेरियन सभ्‍यता में भी प्रयोग में आते थे। लगभग 2000 ईसापूर्व की एक मृणपट्टिका में एक हारपिस्‍ट या तंत्रीवादक को दिखाया गया है जिसके लिए कहा गया है कि वह कविता को संगीतबद्ध करने में सहायता करता था।
(Stamped clay plaque of a harpist- 2000 B.C, Music was an important part of daily life. Sumerians used many instruments including harps, pipes, drums, and tambourines. The music was often used in conjunction with poems and songs dedicated to the gods) नाट्यशास्‍त्र में हारपिस्‍ट के लिए 'वेणिक' का प्रयोग हुआ है।

हमारे यहां भी तंत्री वाद्य का वैदिक काल से ही जिक्र मिलता है। बाण, कर्करी, गर्गर, गोथा और आघाटी नामक वीणाओं का यही स्‍वरूप हाेता था। जिसमें तूंबे का प्रयोग होता, वह 'अलाबु वीणा' कही जाती थी। शांख्‍यायन ब्राह्मण की वह कथा मशहूर है कि असुर ने सिद्धत्‍व के परीक्षण के लिए कण्‍व मुनि को कैद कर लिया। चुनौती दी‍ कि वह बिना देखे बताए कि सूर्योदय हो गया है। तब उन्‍होंने अश्वि देवता के प्रात:कालीन तंत्रीवादन को सुनकर बताया कि सवेरा हाे गया है... तब जाकर असुरों ने उनको स्‍वतंत्र किया। रामायण काल में भी 'तंत्रीलय समन्वितम्...' (बालकांड, सर्ग 4) का संदर्भ सुबह सुबह गूंजने वाली मंगलध्‍वनि के प्रसंग में आया है।
बौद्ध ग्रंथों में गुत्तिल जातक में एेसी ही कथा आती है। तब वीणा वादन की प्रतियोगिताएं होती थी। उज्‍जैनी या उज्‍जैन के वीणा वादक मूसिल और वाराणसी के राजवादक गुत्तिल के बीच राजदरबार में जो प्रतियोगिता हुई, उसमें बड़ी भीड़ जुटी थी। गुत्तिल ने वीणा की सप्‍ततंत्रियों में से प्रत्‍येक तार को तोड़ते हुए भी अपना वादन निरंतर रखा। जब सारे ही तार भूमि पर गिर पड़े तब भी तमाशबीन देख रहे थे कि वीणा से ध्‍वनि निकल रही थी,, दर्शक चकित थे... दण्‍ड ही ध्‍वनि निष्‍पन्‍न कर रहा था।
है न तंत्रीवाद्य की रोचक कहानियां और प्रसंग। ऐसे दर्जनों प्रसंग याद हैं मगर, सबसे अधिक रोचक बात यह है कि यह वाद्य भारत से लेकर सुमे‍रियन सभ्‍यता तक अपनी झंकार से जनजीवन में सुरों का सुख पूरित करता रहा है...।

विश्‍वकर्मा और उनके शास्‍त्र

शिल्‍प और स्‍थापत्‍य के प्रवर्तक के रूप में भगवान् विश्‍वकर्मा का संदर्भ बहुत पुराने समय से भारतीय उपमहाद्वीप में ज्ञेय और प्रेय-ध्‍येय रहा है। विश्‍वकर्मा को ग्रंथकर्ता मानकर अनेकानेक शिल्‍पकारों ने समय-समय पर अनेक ग्रंथों को लिखा और स्‍वयं कोई श्रेय नहीं लिया। सारा ही श्रेय सृष्टि के सौंदर्य और उपयोगी स्‍वरूप के र‍चयिता विश्‍वकर्मा को दिया। उत्‍तरबौद़धकाल से ही शिल्‍पकारों के लिए वर्धकी या वढ़ढी संज्ञा का प्रयोग होता आया है। 'मिलिन्‍दपन्‍हो' में वर्णित शिल्‍पों में वढ़ढकी के योगदान और कामकाज की सुंदर चर्चा आई है जो नक्‍शा बनाकर नगर नियोजन का कार्य करते थे। यह बहुत प्रामाणिक संदर्भ है, इसी के आसपास सौंदरानंद, हरिवंश आदि में भी अष्‍टाष्‍टपद यानी चौंसठपद वास्‍तु पूर्वक कपिलवस्‍तु और द्वारका के न्‍यास का संदर्भ आया है। हरिवंश में वास्‍तु के देवता के रूप में विश्‍वकर्मा का स्‍मरण किया गया है...।

प्रभास के देववर्धकी विश्‍वकर्मा यानी सोमनाथ के शिल्पिकारों का संदर्भ मत्‍स्‍य, विष्णुआदि पुराणों में आया है जिनके महत्‍वपूर्ण योगदान के लिए उनकी परंपरा का स्‍मरण किया गया किंतु शिल्‍पग्रंथों में विश्‍वकर्मा को कभी शिव तो कभी विधाता का अंशीभूत कहा गया है। कहीं-कहीं समस्‍त सृष्टिरचना को ही विश्‍वकर्मीय कहा गया।

विश्‍वकर्मावतार, विश्‍वकर्मशास्‍त्र, विश्‍वकर्मसंहिता, विश्‍वकर्माप्रकाश, विश्‍वकर्मवास्‍तुशास्‍त्र, विश्‍वकर्मशिल्‍पशास्‍त्रम्, विश्‍वकर्मीयम् आदि कई ग्रंथ है जिनमें विश्‍वकर्मीय परंपरा के शि‍ल्‍पों और शिल्पियों के लिए आवश्‍यक सूत्रों का गणितीय रूप में सम्‍यक परिपाक हुआ है। इनमें कुछ का प्रकाशन हुआ है। समरांगण सूत्रधार, अपराजितपृच्‍छा आदि ग्रंथों के प्रवक्‍ता विश्‍वकर्मा ही हैं। ये ग्रंथ भारतीय आवश्‍यकता के अनुसार ही रचे गए हैं।

इन ग्रंथों का परिमाण और विस्‍तार इतना अधिक है कि यदि उनके पठन-पाठन की परंपरा शुरू की जाए तो बरस हो जाए। एक स्‍वतंत्र पाठ्यक्रम लागू किया जा सकता है। इसके बाद हमें पाश्‍चात्‍य पाठ्यक्रम के पढ़ने की जरूरत ही नहीं पड़े। यह ज्ञातव्‍य है कि यदि यह सामान्‍य विषय होता तो भारत के पास सैकड़ों की संख्‍या में शिल्‍प ग्रंथ नहीं होते। तंत्रों, यामलों व आगमों में सर्वाधिक विषय ही स्‍थापत्‍य शास्‍त्र के रूप में मिलता है। इस तरह से लाखों श्‍लोक मिलते हैं। मगर, उनको पढ़ा कितना गया। भवन की बढ़ती आवश्‍यकता के चलते कुकुरमुत्‍ते की तरह वास्‍तु के नाम पर किताबें बाजार में उतार दी गईं मगर मूल ग्रंथों की ओर ध्‍यान ही नहीं गया...।

विश्‍वकर्मा के चरित्र पर स्‍वतंत्र पुराण का प्रणयन हुआ। इस वर्ष 'महाविश्‍वकर्मपुराण' का प्रकाशन मेरे लिए किसी उपलब्धि से कम नहीं है।

चन्‍द्रावती : अर्बुद के नीचे का दुर्ग

राजस्‍थान और गुजरात के सीमावर्ती विश्‍वप्रसिद्ध आबू पर्वत के पास चंद्रावती नामक स्‍थान पर इन दिनों हो रहे पुरातात्विक उत्‍खनन में कई कई रहस्‍यों की परतों का सफाया हुआ है। संयोग से यह उस काल की बस्‍ती रहा है जबकि नगरों का नामांत 'आवती' के रूप में होता था, कर्णावती, दर्भावती, द्वारावती। मगर, ये सिर्फ वर्तमान नाम को लेकर ही सोचा जा सकता है, वरना इस नगरी के संदर्भ तो उस काल के भी मिलते हैं जबकि भारतीय दीनारों से परिचित थे...। अपने संदर्भ फिर कभी...। एक बार वहां खुदाई हो जाए।

लिहाजा, वहां राजस्‍थान पुरातत्‍व विभाग और जनार्दनराय नागर राजस्‍थान विद्यापीठ विश्‍व विद्यालय के संयुक्‍त तत्‍वावधान में इन दिनों खुदाई हो रही है, नेतृत्‍व कर रहे हैं प्रसिद्ध युवा पुराविद और मेरे सुहृद प्रो. जीवन‍सिंह खरकवाल। जो अवशेष सामने आए हैं, वे करीब एक हजार साल पुराने हैं। उनमें मजबूत किले के आधार का मिलना रोचक है। वर्गाकार रूप में इस किले का निर्माण वास्‍तुशास्‍त्र के चतुरस्र स्‍वरूप को बताता है, भुजाएं लगभग 60 मीटर की हैं और प्रवेश उत्‍तर-पश्चिम दिशा यानी वायव्‍यकोण में रखा गया था।
 
वास्‍तुशास्‍त्र कहता है कि इस द्वार के अनुसार वहां के योद्धाओं को सदा ही तैयार रहना पड़ा होता है, वे वायु की तरह अपने बल को दिखाने का हौंसला रखने के धनी रहे होंगे। एक संकड़ा द्वार पूर्व दीवार में है जिसको संकट कालीन द्वार के रूप में जाना जा सकता है, दुर्गों में इस तरह के पक्ष द्वार होते थे। तीन मुख्‍य भवनों की योजना इसमें मिली है जिनमें से एक अंत:पुर रहा होगा। इसी प्रकार के भवनों के संदर्भ संस्‍कृत के ग्रंथों में आते हैं। यूं यहां करीब छह कक्षों की योजना रही होगी। यहां विद्याधरियों या बुर्जों को गोलाकार और चौकोर दोंनों ही रूपों में बनाया गया है। यह परंपरा पूर्व मध्‍यकाल में थी और बाद में भी इसका अनुसरण किया गया।

यूं पूरा चंद्रावती शहरकोट से घिरा हुआ था और करीब 50 हैक्‍टेयर में विस्‍तीर्ण था। पूरी बस्‍ती पर निगाह रखने के लिए चौकियां या वाचटॉवर का प्रावधान था। यहां लोह यंत्र बनाने के लिए प्रद्रावण की भट्टियां भी मिली हैं। चूना भी तैयार होता था जिसे सुधा कहा जाता था। बड़े द्रोण जैसे मृदभांड भी मिले हैं। निर्माणकार्य में इसका बड़ा उपयोग होता था। बहुत नियेाजित ढंग से चंद्रावती को बसाया गया था। पास ही सेवार्णी नदी है, यह इलाका खेती के लिए रहा होगा। जानकारियां और भी हैं...। बधाई जीवनजी और उनकी पूरी टीम को कि भारत के पश्चिमी सीमा पर भूमिदुर्ग की परंपरा को उजागर किया गया...। देखिये कि उनकी प्राथमिक रिपोर्ट क्‍या कहती है...


Thousand year old settlement unearthed at Chandravati-
The archaeological excavation team, spearheaded by Prof. J.S. Kharakwal of JRN Rajasthan Vidyapeeth, Udaipur, has successfully exposed the complete plan of settlement in one of the ancient forts at Chandravati. The ancient settlement is held to belong to Parmars of Abu branch spread in about 50 hectares. As many as three fortified enclosures have been discovered so far. The largest fortified area, spread in about four hectares, is located in the valley of Banas whereas remaining two forts, about three dozen temples, around a dozen bawaris, besides a very large settlement are located in the valley of Sevarni, a tributary of the Banas. Unfortunately, a major part of the ancient city was destroyed while the Abu Road –Palanpur highway was made. It has in fact divided the ancient township in two parts. Archaeological excavation commenced at Chandravati on 12th January and would continue until the last week of February. One of the fortified areas located very close to museum building at Chandravati was partially exposed in the first field season last year. Now the team has discovered three residential complexes in the fort. One of them located in the south eastern corner with 6 rooms is believed to be janana mahal (see line drawing). The second complex discovered in the north eastern part also has equal number of rooms but no passage from this complex to janana mahal. The entrance to the fort was given from north western corner. In the south central part of the fort was discovered the third residential complex with a few rooms and a very large hall opening towards janana mahal. In fact janana mahal was completely bracketed by third complex, clearly suggesting that no outsider was allowed to enter in it. Though no outlets for water have been discovered so far but the excavator suggests that the general slope of the land in the fort area is towards north, therefore it is quite likely that the waste water was being sent outside the settlement through the main gate. A variety of minor objects like gamesman, terracotta beads, copper and iron objects, animal figurines were discovered from these complexes. Besides, a large quantity of charred grains were also discovered
in one of the rooms close to a circular terracotta feature which looked like gatti (grinding instrument).
As many as six different structural phases have been discovered in this settlement. The investigating team strongly believes that the beginning of settlement at Chandravati would much earlier than what is believed. It is because the township of Parmar kings is superimposed on a very large ancient settlement, which is partially exposed close to the fort. A huge storage jar (see photo) has been discovered in one of rooms, it was strongly protected in a chamber and blank space was filled with sand. Charcoal samples for radio carbon dates and phytolith samples have been sent to concerned laboratories to confirm the Intensive exploration unit of the research team has spotted craft area of the township along the Sevarni or on the southern fringe of the settlement. It is likely that out of three dozen temples a few may particularly belong to craft folks. Besides, the exploration unit has also discovered a few watch towers located to the east and south east of the settlement. Line drawing of the temples, craft area, and other complexes is also underway.

चन्‍द्रावती में चंद पल

आबू के पास इन दिनों जिस चंद्रावती नगरी की खुदाई हो रही है, उसको आखिर गुरुवार को देख ही लिया। सूर्योदय चंद्रावती में हुआ और पांव सीधे ही उसी पुरास्‍थली में थे जिसको परमारों ने अपने प्रयासों से वैभव का परम दिया। दक्षिण की ओर बहने वाली नदीं, करीब दो सौ बीघा भूमि, आज उस पर बबूल और अन्‍य पेड़-पौधों का साम्राज्‍य है मगर सच ये है कि उन कांटों ने अपने अंक में एक बेशकीमती विरासत को अक्षुण्‍ण रखने में बड़ा योगदान किया है।

बहुत नियोजित रूप से चंद्रावती नगर का न्‍यास हुआ है। अब तक इस नगरी में 33 मंदिरों की जगतियों को खोजा गया है जबकि किलों के रूप में तीन राजमहलों को न केवल चिन्हित किया गया बल्कि मिट्टी की परतों को हटाकर उनके लिए प्रयोग में लाई गई ईंटों और उनके जमाव की तकनीक को रेखांकित, चित्रित करने का अपूर्व प्रयास हो रहा है। इन नगरी की एक खासियत यह रही है कि इसमें र्इंटों का सर्वाधिक प्रयोग किया गया और न केवल दीवारों के लिए बल्कि फर्श के लिए भी 28 गुणा 28 की ईंटों को बिछाया गया है।

राजमहलों की दीवारों की रचना में भी ईंटों को ही ऊर्ध्‍वाधर इस रूप में संयोजित किया गया है कि नीचे का भाग चौड़ा दीखे और ऊपर की ओर न्‍यून होता जाए। इसमें चारों ही ओर बुर्जियों की जो रचना की गई है, उनमें छत के जल को स्‍वभावत: नीचे उतारने व दीवारों को बचाने के लिए 'सलिलान्‍तर' या 'वार्यान्‍तर' का प्रयोग किया है। सलिलान्‍तर और वार्यान्‍तर वे शब्‍द हैं जिनका प्रयोग परमार राजा भोज ने अपने 'समरांगण सूत्रधार' में एकाधिक स्‍थलों पर किया है, तब मैं इसका आशय नहीं समझ पाया, आज पहली बार इसको प्रयोग सहित देखकर अर्थ समझ में आया तो मैं मुआयने के दौरान तत्‍काल बोल पड़ा था। वहां परेड को देखने के लिए 'खलूरिका' की रचना भी हुई है। यह शब्‍द मयमतं और मानसार में आया है। सच में एक शिल्‍प के अध्‍येता के लिए तत्‍कालीन नगर को देखना रोचक और रोमांचक था। मैंने कहा कि वे तत्‍कालीन शिल्‍प ग्रंथों के सहयोग से इस नगर के नियोजन विधान का परीक्षण करने का जरूर प्रयास करें...।

हां, र्इंटों का प्रयोग देखकर तो मुझे समरांगण सूत्रधार के वे सारे संदर्भ स्‍मरण हो गए जो ईंटोंं की रचना को लेकर हैं। उसकाल में ईंटों का इतना प्रयोग देखकर लगा कि वहां जरूर कोई बड़ी कुम्‍हारों की बस्‍ती रही होंगी जिन्‍होंने अलग-अलग प्रकार की ईंटों, मृल्‍लोष्‍ट को तैयार करने में पूरे परिवार की ताकत झोंक दी होंगी। हां, वहां से कालांतर में पलायन करने वाले कुम्‍हारों की गोत्रीय-अटकों में चंद्रावती या आबू का असर जरूर मौजूद होगा। कई संदर्भ मेरे मन में हैं, और कई संदर्भ खोजने हैं। ऐसे ही संदर्भों का अध्‍ययन वहां पर पूना की शाहीदाजी कर रही हैं जबकि अनिलजी पोखरिया अनाज के दानों को खोज रहे हैं। और इन सभी का नेतृत्‍व कर रहे हैं युवा पुराविद्, मित्रवर प्रो. जीवनसिंह खरकवाल। उनके जुनून, जिद और जज्‍बे को सलाम, उनके अतिशय आग्रह का अनेक अनेक आभार और उनके साथ भ्रमण और सहयोग-सौजन्‍य के प्रति साधुवाद...।

तुसाम का तड़ागोत्‍सर्ग शिलालेख

हरियाणा में गुप्‍तकाल का एक अभिलेख आज से 140 साल पहले खोजा गया था। यह पहाड़ी पर लिखा गया था और इसको तुषाम या तुसाम अभिलेख के नाम से एशियाटिक सोसायटी सहित भारतीय पुरातत्‍व सर्वेक्षण विभाग के अधिकारियों ने नामांकित करते हुए प्रकाशित किया। यह एक ऐसा गिरि-अभिलेख है जिसमें चक्र को वैष्‍णवीय प्रतीक के रूप में उत्‍कीर्ण किया गया है। तड़ाग बनवाकर उसके समीप की पहाड़ी को उसका शिखर मानते हुए उस पर लेख सहित चक्र अंकित किया गया, यह कालांतर में वैष्‍णवीय परंपरा में स्‍वीकार्य रहा। यही नहीं, इसमें सात्‍वतों का जिक्र है और सात्‍वत संहिता, सुदर्शनसंहिता, विष्‍णुसंहिता आदि में भी वैष्‍णवीय चक्र के रूप में सुदर्शन की बड़ी महिमा लिखी गई है, यही नहीं, वैष्‍णवीय प्रासाद, तड़ाग आदि में भी शिखर पर स्‍थान देने का निर्देश किया गया। यही नहीं, इसमें वैष्‍णवीय योग के संबंध में भी लिखा गया जो कि विष्‍णुपुराण, गीता आदि में स्‍मरणीय है। किंतु, इस प्रतीक को शिलालेख की खोज के दौरान प्रथमत: बौद्ध या सौर चिन्‍ह के रूप में देखा गया।

हाल ही श्री रणवीरसिंहजी ने इस तुषाम अभिलेख की एक तस्‍वीर  फेसबुक पर पोस्‍ट की, मेरी जिज्ञासा ने इस लेख के सारे संदर्भों को खोजने की दिशा में प्रेरित किया और जो जानकारियां पुरातत्‍व विभाग सहित प्रो. जेएफ फ्लीट आदि के संग्रहों से मिल सकी, उसको मैंने श्री रणवीरसिंहजी की फेसबुक वॉल पर तो लिखा ही, किंतु यह भी सोचा कि इसके बारे में अपने मित्र भी जान सके। उन सभी मित्रों को भी इस शिलालेख को उसके वर्तमान चित्र और मूल पाठ, अनुवाद सहित दिखाना चाहता हूं जो इसके बारे में ज्‍यादा नहीं जानते। इस अभिलेख की प्रारंभिक जानकारी जनरल अलेक्‍जेंडर कनिंघम ने 1875 ई. आर्कियोलॉजी सर्वे ऑफ इंडिया के जिल्‍द 5 (पृष्‍ठ 138) से दी। कनिंघम ने तत्‍कालीन पद्धति के अनुसार शिलामुद्रण के साथ बाबू प्रतापचंद्र घोष कृत लेख का अनुवाद प्रकाशित किया।
इसका पाठ इस प्रकार है--

जितम भीक्ष्‍णमेव जाम्‍बवतीवदनारविन्‍दोर्ज्जिताळिना।
दानवांगाना मुखाम्‍भोज लक्ष्‍मी तुषारेण विष्‍णुना।।
अनेक पुरुषाभ्‍यागतर्य्य सात्‍वतयोगाचार्य्य
भगवद्भक्‍त यशस्‍त्रात प्रपोत्रस्‍याचार्य्य विष्‍णुत्रात
पाैत्रास्‍याचार्य्य वसुदत्‍तपुत्रस्‍य रावण्‍यामुत्‍पन्‍नस्‍य
गोतम सगोत्रस्‍याचार्य्यापाद्धयाय यशस्‍त्रातान्
जस्‍याचार्य्य सोमत्रातस्‍येदं भगवत्‍पादोपयोज्‍यं
कुण्‍डमुपर्य्यावस्‍थ: कण्‍डं चापरं।।

इन संस्‍कृत पंक्तियों का आशय है कि-
 
1. '' जाम्‍बवंती के मुखरूपी कमल के लिए शक्तिमान भ्रमर के समान तथा दानवों की स्त्रियां के मुखरूपी कमल की शोभा के विनाश के लिए तुषार स्‍वरूप भगवान विष्‍णु द्वारा पुन-पुन: विजय प्राप्‍त की गई।

2. भगवान के चरणों के उपभोग के लिए निर्मित यह तडाग तथा इसके ऊपर निर्मित भवन तथा दूसरा तडाग आचार्य सोमत्रात की कृति है, जो कि पूर्व पीढियों के विविध लोगों के उत्‍तराधिकारी, महापूजनीय सात्‍वत तथा योगदर्शन के आचार्य तथा भगवान के परम भक्‍त यशस्‍त्रात के प्रपोत्र है, आचार्य विष्‍णुत्रात के पोत्र रावणी से उत्‍पन्‍न आचार्य वसुदत्‍त के पुत्र हैं, गोतम गोत्र के हैं तथा आचार्य एवं उपाध्‍याय यशस्‍त्रात के अनुज हैं।''
मित्रों को याद रहे कि हरयाणा में तुशाम गांव के ठीक पश्चिम में एक चढ़ान युक्‍त पहाड़ी है जो भूमिस्‍तर से एकाएक प्रारंभ होती है और लगभग 800 फीट ऊंचाई तक जाती है, वर्तमान लेख पहाड़ी के पूर्वी भाग में लगभग आधी ऊंचाई पर एक शिलास्‍तर पर अंकित है। यह लेख किसी शासक से संबंधित नहीं, इसमें कोई ति‍थि भी नहीं है लिपिशास्‍त्रीय आधार पर इसको चौथी शताब्‍दी के अंत में या पांचवीं सदी के प्रारंभ में रखा गया है। श्री रणवीरसिंह जी ने 1998 में पहाड़ी पर चढ़कर इस तस्‍वीर को लिया और अपने खजाने से हम जैसों के लिए सुलभ करवाया, उनका आभार मानना चाहिए... जय जय।

अहल्‍याबाई का शिलालेख

शिवपूजा में सदा निरत रहने वाली भगवती स्‍वरूपा अहल्‍या बाई का एक अभिलेख मित्रवर श्री राज्‍यपाल शर्मा (झालावाड़) ने भिजवाया है। यह जाम गेट महू के द्वार पर लगा है और देवनागरी के स्‍पष्‍टाक्षरों में संस्‍कृत भाषा में लिखा गया है। इसमें संवत लिखने में ही दो श्‍लोकों का प्रयोग किया गया है। विक्रम और शक दोनों ही संवतों का प्रयोग किया गया है, विक्रम संवत 1847 के माघ मास की 13वीं तिथि को इसको लिखा गया है। द्वार की प्रशंसा में मनोहर शब्‍द मात्र लिखा गया है।
मूलपाठ इस प्रकार है :
श्री।
श्रीगणेशाय नम:।।
स्‍वस्ति श्रीविक्रमार्कस्‍य संमत्
1847 सप्‍ताब्धिनागभू:।
शाके 1712 युग्‍मकुसप्‍तैक मिते
दुर्मति वत्‍सरे। माघे शुक्‍ल त्रयोदश्‍यां पुष्‍यर्क्षे
बुधवारे सुबा (स्‍नुषा)* मल्‍लारि रावस्‍य खंडेरावस्‍य वल्‍लभा।। 2।।
शिव पुजापरां नित्‍यं ब्रह्मप्‍याधर्म तत्‍परा।
अहल्‍यारग्राबबंधेदं मार्ग द्वार शुशोभनम़।। 3।।

अहल्‍याबाई ने कई निर्माण कार्य करवाए, उनमें द्वार रचना भी हुई है। इस शिलालेख में स्‍नुषा शब्‍द आया है जिसका आशय है कि पुत्रवधू,, संध्‍या सोमन ने इस इस शब्‍द की ओर ध्‍यान दिलाया है, तदर्थ आभार।

लिपियां - छोटा देश, बड़ा लिपि संसार

हमारे यहां कई लिपियां थीं। पहली सदी तक चौंसठ लिपियां अस्तित्‍व में थीं। इन लिपियों के अलग-अलग नाम भी मौजूद हैं। यह कैसे हुआ, कोई नहीं कह सकता, मगर लिपियों का इतनी संख्‍या में होना जाहिर करता है कि ये सब एकाएक नहीं आ गई। एक छोटे से देश में इतनी लिपियां और उनको लिखने की परंपरा,.. बुद्ध जब पढने जाते हैं तो पहले ही शिक्षक को 64 लिपियों के नाम गिनाते हैं जिनमें पहली लिपि ब्राह्मी हैं। महाभारत में विदुर को यवनानी लिपि के ज्ञात होने का जिक्र आया है, वशिष्‍ठस्‍मृति में विदेशी लिपि का संदर्भ है। किंतु ब्राह्मी वही लिपि है जिसको चीनी विश्‍वकोश में भी ब्रह्मा द्वारा उत्‍पन्‍न करना बताया गया है..।
पड़ नामक लिपि खोदक का नाम अशोक के शिलालेख में आता है, जो अपने हस्‍ताक्षर तो खरोष्‍टी में करता था अौर लिखता ब्राह्मीलिपि। हालांकि अशोक ने अपनी संदेशों को धर्मलिपि में कहा है...। सिंधु-हडप्‍पा की अपनी लिपि रही है, इस सभ्‍यता की लिपि के नामपट्ट धोलावीरा के उत्‍खनन में मिल चुके हैं...। कुछ शैलाश्रयों में भी संकेत लिपि के प्रमाण खोजे गए हैं।
ऐसे में ब्‍यूलर वगैरह उन पाश्‍चात्‍य विद्वानों के तर्कों का क्‍या होगा जो भारतीयों को अपनी लिपि का ज्ञान बाहर से ग्रहण करना बताते हैं। भारत में लिपियों का विकास अपने ढंग से, अपनी भाषा और अपने बोली व्‍यवहार के अनुसार हुआ है।
हर्षवर्धन के काल में लिखित 'कादम्‍बरी' में राजकुमार चंद्रापीड़ को अध्‍ययन के दौरान 'सर्वलिपिषु सर्वदेश भाषासु' प्रवीण किया गया। इस आधार पर यह माना जाता है कि उस काल तक लोग सभी लिपियां जानते थे, अनेक देश की भाषाओं को जानते थे। उनको पढ़ाया भी जाता था। लगता है कि भारतीयों को अनेक लिपियों का ज्ञान होता था और उनकी सीखने में दिलचस्‍पी थी। तभी तो हमारे यहां लिपिन्‍यास की परंपरा शास्‍त्रों में भी मिलती है। लिपिन्‍यास का पूरा विधान ही अनुष्‍ठान में मिलता है.. इस संबंध में एक बार फिर से प्रकाशनाधीन भारतीय प्राचीन लिपिमाला की भूमिका लिखी है इन दिनों,,, जिक्र फिर कभी।

भाषा-भाव के निर्देशक भगवान एकलिंग


शिव और उनके शैवधर्म ने शासकों के शासन संचालन में बड़ा सहयोग किया है। राजस्‍थान में अनेक राजवंश शैव रहे हैं और शैव मान्‍यताओं के अनुसार ही उन्‍होंने अनेक आदर्श स्‍थापित किए।

इनमें मेवाड़ ने तो शिव के एकलिंग स्‍वरूप को ही अपना राजा और महाराणाओं ने स्‍वयं को उनके दीवान के रूप में रेखांकित किया है। विश्‍व में यह अनोखा ही उदाहरण है कि जहां शासक के रूप में परमेश्‍वर को माना गया जबकि गीता सहित मनु, बार्हस्‍पत्‍य आदि नीतिशास्‍त्रों ने राजा में सर्वेश्‍वर को देखने का निर्देश किया है।

एकलिंगजी का मंदिर उदयपुर जिले में मुख्‍यालय से अठारह किलोमीटर उत्‍तर में कैलाशपुरी नामक गांव में है। कभी यहां का नागदा नामक नगर अपने विकास के चरम पर था और वहां परमारों से लेकर गुहिल शासकों तक ने देवालयों का निर्माण करवाकर एक राजधानी का विकास किया किंतु 12वीं सदी में सुल्‍तान अल्‍तमिश के हमले में उस नगर को जला दिया गया।

एकलिंगजी एक नहीं, अनेक मंदिरों के समूह के रूप में ख्‍यात है। यहां मूलत: पाशुपत संप्रदाय का मंदिर रहा है जिसका शिलालेख 917 ई. का मिलता है किंतु महाराणा मोकल, कुंभा और रायमल के शासनकाल में जिस भव्‍य मंदिर का विकास हुआ, उसे एकलिंग मंदिर के रूप में ख्‍याति लब्‍ध है। कलिंग की तरह एकलिंग का विकास इस मान्‍यता के आधार पर हुआ कि जहां पांच पांच कोस तक मात्र एक ही लिंग विद्यमान हो -

पंचक्रोशान्‍तरे यत्र न लिंगान्‍तरमीक्षते।
तदेकलिंग माख्‍यातं तत्र सिद्धिरनुत्‍तमा।


पंचमुखी स्‍वरूप व माहात्‍म्‍य-

 
मुखलिंग के रूप में है एकलिंगजी का स्‍वरूप-

एकलिंगजी का स्‍वरूप मुखलिंग के रूप में है। चारों ही दिशाओं में ईशानादि स्‍वरूप और शीर्ष पर सूर्य के स्‍वरूप को मानकर यहां कभी तांत्रिक विधि से पूजा की जाती थी किंतु बाद में इस मंदिर की अपनी विशेष पूजा पद्धति का विकास हुआ।
 
महिमा में स्‍वतंत्र पुराण रचा गया-

यह ऐसा शिव मंदिर है कि जिसकी महिमा में स्‍वतंत्र पुराण की रचना की गई है। 'एकलिंगपुराण' के नाम से रचित इस पुराण को वायुपुराण से संबद्ध माना गया है। इसमें एकलिंगजी के प्रादुर्भाव, कुटिला नदी, करज कुंड, भैरों बावड़ी, इंद्र सरोवर, धारेश्‍वर तीर्थ, विंन्‍ध्‍यवासिनी, राष्‍ट्रश्‍येना आदि स्‍थलों का महत्‍व आया है। तिथियों के अनुसार यहां होने वाली पूजा परंपरा और यात्राओं का विवरण विस्‍तार से लिखा गया है। महाराणा कुंभा के शासनकाल में इस पुराण की रचना प्रारंभ हुई किंतु इसकी पूर्णता महाराणा रायमल के शासनकाल में 1497 ई. के आसपास हुई। इसमें शिव के मेवाड में एकलिंग के रूप में प्रादुर्भूत होने का प्रसंग आया है -
 
भूमिं भित्‍वाथ तत्रापि पातालं तदगमिष्‍यति।
मेदपाटे पुनर्धेन्‍वा स्‍मृतं प्रादुर्भविष्‍यति।
पाषाणत्‍व सुरा या‍न्‍तु लिंगस्‍यास्‍य समीपत:।
(एकलिंगपुराण 5, 5-6)
 
स्‍वदेशी भाषा के निर्देशक शिव -

यहां की दक्षिण द्वार की 1495 ई. की प्रशस्ति में महाराणा हमीर से लेकर रायमल तक किए गए दान, सतकार्यों का विवरण मिलता है। यह प्रशस्ति भारतीय शिलालेखों में इसलिए रेखांकित की जा सकती है कि इस प्रशस्ति में पहली बार स्‍थानीय भाषा को महत्‍व दिया गया है। कहा गया है कि शिवसूत्रों से निष्‍पन्‍न नियमों वाली संस्‍कृत को काेई कोई विचक्षण ही जान सकता है किंतु जन सामान्‍य के लिए स्‍वदेशभाषा में अनुवाद होना चाहिए, यह शिवाज्ञा है। इसके बाद 100 श्लोकों का सार तत्‍कालीन राजस्‍थानी भाषा में लिखकर उत्‍कीर्ण किया गया है।

शिवधर्म की यह मान्‍यता रही है कि संस्‍कृत और प्राकृत सहित स्‍थानीय भाषा को महत्‍व मिले, यहां का शिलालेख इस मत की पुष्टि करता है। यही नहीं, एकलिंगजी के आराधक बावजी चतुरसिंह आदि ने स्‍थानीय भाषा में ही ही शिवस्‍तुतियों की रचना या अनुवाद का कार्य किया -

दासपालक पूजनीक अखण्डनिध दिग्वस्त्र है,
नाथ सबरो परे सबशूं जो अचिंत अनूप है,
चाँद जलधर सूर्य अग्नी पवन आप आकाश है,
चंद्रधारक आशारे म्हूं काल म्हारो कई करे।।
 
 
मेलों की महिमा -
शिवरात्रि पर लगता है मेला-

यूं तो एकलिंगजी में नित्‍य उत्‍सव रहता है किंतु गुरुपूर्णिमा यहां का सांस्‍कृतिक पर्व है तो शिवरात्रि पर मेला लगता है। पैदल यात्रियों की सर्वाधिक पहुंच हाेती है और रात में चारों ही प्रहर पूजा होती है। यह मान्‍यता है कि किसी भी मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी शिवरात्रि कही जाती है, किन्तु कालमाधव के अनुसार माघ (फाल्गुन, पूर्णिमान्त) की चतुर्दशी महत्वपूर्ण है और महाशिवरात्रि कहलाती है।
शिवपुराण, लिंगपुराण में शिवरात्रि की व्रतकथा आती है। गरुडपुराण (1/124) , स्कन्दपुराण (1/1/32), पद्मपुराण (6/240) और अग्निपुराण (अध्‍याय 193) आदि में इस ति‍थि का वर्णन मिलता है। विशेषता यह है कि जो कोई श्रद्धापूर्वक इस दिन उपवास करके बिल्व-पत्तियों से शिव की पूजा करता है और रात्रि जागरण करता है, शिव उसे आनन्द एवं मोक्ष प्रदान करते हैं और व्यक्ति स्वयं शिव स्‍वरूप हो जाता है -
 
स्वयम्भूलिंगमभ्यर्च्य सोपवास: सजागर: ||
महाभारत का मत है -आद्यं पुरुषमीशानं पुरुहूतं पुरुष्टुतम् |
ऋतमेकाक्षरं ब्रह्म व्यक्ताव्यक्तं सनातनम् ||
असच्च सदसच्चैव यद् विश्वं सदसत्परम् |
परावराणां स्रष्टारं पुराणं परमव्ययम् ||
महाभारत आदिपर्व 1/22-23
 
 

जंवरा बीज : एक स्‍थानीय हास्‍य पर्व

होली के दूसरे रोज, चैत्र कृष्‍णा द्वितीया को मेवाड़ में जंवरा बीज के रूप में मनाया जाता है। यहां दूज को बीज कहना इसलिए उचित है कि दाल जैसे बीज में दो भाग ही होते हैं अत: बीज 2 के अर्थ में हैं। वैसे दूज को गुजरात में भी बीज ही कहा जाता है, दूसरे को बीजा के रूप में पुकारा जाता है।
जंवरा बीज इसलिए कि इस दिन का संबंध जंवर, जम्‍मर या जौहर जैसी परंपरा से रहा है। बात चित्‍तौड़ की है...किंतु प्रसंग ये है कि इस दिन होली के काष्‍ठ का वह खंड जो भूमि में बिना जले रह गया, उसको रात को महिलाओं द्वारा खोदकर निकाला जाता है। बिना जले काष्‍ठ को खोदकर निकालने की यह परंपरा मिस्र की पुरानी परंपराओं से बड़ी समानता लिए है जबकि महिलाएं कृषि की खोज और जल गए पेड़-पौधों वाली भूमि पर चूल्‍हों के लिए इंधन की तलाश करती थीं और उसको निकालने, उस पर स्‍वत्‍व दर्शाने में मनसा वाचा कर्मणा ताकत झोंक देती थी...।

यूं तो यह सामान्‍य बात है मगर खास बात ये कि महिलाएं समूह में यह कार्य करती हैं। बहुत ही नोक-झोंक, चुहलबाजी के बीच यह रस्‍म होती है। एकदम बेखौफ, उन्‍मुक्‍त होकर, पर्दे वाली औरतें भी उगाड़ी बातें कहने से परहेज नहीं करती, एक अजूबी आजादी... इसके गीत कम नहीं और गालियां भी कमतर नहीं.. सुनकर देखें कि कान के पर्दों से जेहन में जमीं कर जाए... इसे 'जंवरा खांडना' कही जाती है। मर्द या मर्द का जाया वहां नहीं जा सकता। उन लोगों के संस्‍मरण भी मुझे याद आते हैं जिन्‍हें भूलवश वहां से गुजर जाने पर नारी-दरबार में कोपभाजन बनना पड़ा और लहंगे के नीचे से तक गुजरना पड़ा, लहंगे के लोर तक सलाम ठोकना पड़ा... smile emoticon

हां, इस पर्व पर पर्याप्‍त व्‍यंजन बनाए जाते हैं। देशज व्‍यंजन : खाजा, पापड़ी, पापड़, भुजिया, गुलगुले, साकरपारे, सुहालिया... वाह। सभी देशी, स्‍वाद भी अपना। ये अगले दस दिन तक चलते हैं। न्‍यौतों के दौर चलते रहते हैं। इसी मौके से गेर नर्तन का आगाज होता है, इनमें मेनार गांव का गेर नर्तन तो लाठियों के साथ-साथ तलवारों के प्रयोग के कारण दर्शनीय होता है। वल्‍लभनगर में वृहन्‍नलाओं की बरात ईलोजी के द्वार से चढ़ती है और काचे-कुंवारों के ब्‍याह की कामना होती है...।

वाह, क्‍या नहीं होता... है न रोचक जंवरा बीज। स्‍त्री समाज के स्‍वातंत्र्य, सुहालिकाओं के स्‍वाद का सुख्‍यात अवसर। कोई पुराणकार होता तो लिख ही देता :
 
चैत्रमासे कृष्‍णपक्षे द्वितीये दिवसे तथा। जंवराबीजाख्‍य पर्वेति योषां चोल्‍लासपूर्वकम्।।
शेषं होलीदण्‍डं कर्षणमश्‍लीलक्रीडाsभवत्। उन्‍मुक्‍त भावेपि नर्तनं च नाना रूपेण व्‍यवहारम्।।

एक थे वररुचि : अश्‍वशास्‍त्र के प्रणेता


विक्रमादित्‍य के दरबारियों में एक रचनाकार थे वररुचि। माना जाता है कि वह नवरत्नों में थे, मगर उनकी रचना प्रकिया और उनके विषयों की उपयोगिता पांचवीं सदी के आसपास की लगती है। इसी काल से उनकी उक्तियां मिलती हैं जो पठन-पाठन में व्‍यवहार्य हो गई। उनके ग्रंथों की चर्चा कश्‍मीर तक थी। उत्‍पल भट्ट जैसे विवृत्तिकार के संग्रह में वररुचि का अश्‍वशास्‍त्र विद्यमान था। यह ग्रंथ बहुत ही महत्‍वपूर्ण रहा होगा तभी तो उसने वराहमिहिर के अश्‍ववर्णन प्रसंगों की तुलना वररुचि के विवरण से की। वैसे उत्‍पल का प्रयास रहा है कि वराहमिहिर के ग्रंथों की टीका करते समय जो-जो भी ग्रंथ वराह के सामने रहे, उन सभी को वह टीका में संदर्भ सहित प्रस्‍तुत करें। इसीलिए उसकी टीकाएं सबसे महत्‍वपूर्ण मानी गई हैं।

पिछले दिनों उज्‍जैन में महाराजा विक्रमादित्‍य शोधपीठ के निदेशक आदरणीय डॉ. भगवतीलालजी राजपुरोहित ने वररुचि विरचित ' पत्र कौमुदी' की एक प्रति मुझे दी तो मैंने कहा कि वररुचि वही जिन्‍होंने अश्‍वशास्‍त्र लिखा, तो वह पूछ बैठे- ये अश्‍वशास्‍त्र कौनसा है। मैंने कहा- वही जिसको उत्‍पल ने बताया है।
बोले- उसको खोजिये। मैंने कहा- तैयार है...।

उत्‍पल ने वररुचि के अश्‍वशास्‍त्र के केवल संदर्भ ही नहीं दिए, बल्कि पूरा ही अश्‍वशास्‍त्र उद्धृत कर दिया। अच्‍छा हुआ जो एक शास्‍त्र बच गया, वरना यह कौन कह सकता था जिन वररुचि की ख्‍याति निघंटु, सुभाषित वचन और पत्रकौमुदी जैसे रचनाकार की हैसियत से जानी जा रही है, वह अश्‍ववैद्यक या अश्‍वशास्‍त्री भी थे।

वररुचि का अश्‍वशास्‍त्र अधिक बड़ा नही, संक्षिप्‍त है। संक्षिप्‍त ही होना चाहिए क्‍योंकि सूत्र रूप में सही, उन्‍होंने अश्‍वविद्या को लिख दिया। उन्‍होंने कहा कि यह ज्ञान तीनों ही लोक में है, इसको मुनिजन जानते है, यूं तो अश्‍वों के विस्‍तृत लक्षणों को कहना बहुत कठिन हैं, वह जानने में तक कठिन है उनके लिए भी जो अच्‍छी बु‍द्धि वाले हैं मगर जिनको जानकारी नहीं है, उनके लिए संक्षिप्‍त में कहता हूं। मेरी रचना में स्‍पष्‍टता रहेगी, मधुर छंद है और इन्‍हीं के सहारे संक्षेप में अश्‍वों के वर्ण, आवर्त, प्रभा, अंग, स्‍वर, गति सहित सत्‍व, गन्‍ध आदि को कहता हूं :

ज्ञानं त्रैलोक्‍य विद्भिर्मुनिभिर‍भिहितं लक्षणं यद्विशालं
दुर्ज्ञेय तद्वहुत्‍वादपि विमलाधिया किं पुनर्बुद्धिहीनै:।
तस्‍मादेतत् समासात् स्‍फुटमधुरपदं श्रूयतामश्‍वसंस्‍थ
वर्णावर्त्‍त प्रभांगस्‍वरगतिसहितै: सत्‍त्‍वगन्‍धैरुपेतम्।।


मुझे मालूम है कि मोटर साइकिल, बस, कार आदि के दौर में घोड़ों के विषय में जानने की सबकी रुचि कम होगी... अब तो घोड़ा केवल दूल्‍हा बनने पर ही याद आता है मगर याद कीजिएगा कि यह जानवर मानव का इतना खास सखा, सहचर और संगी रहा कि उतना साथी अपना सहोदर भी नहीं रहा। सिकंदर ने अपने अश्‍व का स्‍मारक बनवाया। महाराणा प्रताप का स्‍मारक भले ही ना बना मगर चेटक का स्‍मारक बना। याद है न उसने हल्‍दीघाटी युद्ध के बाद तीन टांग पर दौड़ लगाई, अपनी पुतलियां झाड़कर जिसने सहोदर सहित शत्रु सैनिकों का पीछे लगना भांप लिया, प्रताप
को प्राणदान देने के लिए रास्‍ते में पड़े नाले को लांघना उचित समझा और पलक झपकने पहले ही स्‍वामी के हिस्‍से की मौत को झपट लिया, उसके बदले अपनी जान लगा दी...। कई योद्धाओं के स्‍मारक चिन्‍हों, पालियों-पाडियों, वीरगलों में योद्धाओं के साथ उनके अश्‍वों को भी पूजा जाता है...। सच है न।
वररुचि के इस शास्‍त्र की खोज और उसके पाठ का निर्धारण-अनुवाद सचमुच गौरवस्‍पद होगा। विभूतियों में वर्रेण्‍य वररुचि के बारे में फिर कभी...।

गंगावतरण : एक अनूठा चित्रण

अलोरा की गुफाओं ने हमें चित्रमय प्रतिमाओं की अनूठी विरासत दी है। एक ऐसा ही मनोहारी चित्र हमारी शिल्‍प की उस परंपरा का प्रतिनिधित्‍व करता है, जो बाद में श्‍लोक होकर लोक से शास्‍त्र में समाहित हो गई। यूं तो शिल्‍प ग्रंथों में गंगाधर मूर्तियों के कई संदर्भ मिलते हैं। खासकर कामिकागम (उत्‍तरभाग), कारणागम (पूर्वभाग) जैसे शैवागमों से लेकर अंशुमद्भेदागम में भी यह विवरण आया है। अगस्‍त्‍य के सकलाधिकार का भी यह वर्ण्‍य बना तो मय के मयमतं का भी। यही विवरण शिल्‍परत्‍नम् के रचयिता श्रीकुमार के लिए भी प्रतिष्‍ठेय हुआ है और ईशान शिवगुरुदेवपद्धतिकार के लिए भी।

अलोरा की तस्‍वीर की विशेषता यह है कि इसमें गंगावतरण को बहुत रोचक ढंग से दिखाया गया है, शिव के दक्षिण-पार्श्‍व में भगीरथ एक पांव पर खड़े होकर तपस्‍यारत है और विष्‍णुपदी गंगा शिव के मस्‍तक से लहराती हुई उतर रही है। बाजुओं में ही मुनिजनों का उत्‍कीर्णन है। शिव का दाहिना हाथ उनके उष्‍णीष या पाग स्‍तर तक उठा हुआ है। उनका दायां पांव सुस्थित व बायां पांव कुंचित है। सिर पर विश्लिष्‍ट जटाबंध है और बायीं ओर मुख थोड़ा झुका हुआ है। पूर्व कारणागम में कहा है : जान्‍वंतं वापि नाभ्‍यन्‍तं भागीरथ्‍यास्‍तु मानकम्... और उत्‍तरकामिकाग में कहा है : कुर्याद् भगीरथं देवं नाभ्‍यस्‍थस्‍यन सीमगम्। यहां भगीरथ ऊपर की ओर है। 'शिल्‍परत्‍नम्' का विवरण देखियेगा जो कतिपय भेद के साथ ही इस रूप का प्रतिनिधित्‍व करता प्रतीत होता है :

सुस्थितं दक्षिणं पादं वामपादं तु कुंचितम्।
विश्लिष्‍यं स्‍याज्‍जटाबन्‍धं वामे त्‍वीषन्‍नताननम्।।
दक्षिणे पूर्वहस्‍ते तु वरदं दक्षिणेन तु।
देवी मुखाश्रितेनैव देवीमालिंग्‍य कारयेत्।।
दक्षिणापरहस्‍तेन उद्धृत्‍योष्‍णीषसीमकम्।
स्‍पृशेज्‍जटागतां गंगा वामेन मृगमुद्धरेत्।।
देवस्‍य वामपार्श्‍वे तु देवी विरहितानना।
सुस्थितं वामपादं तु कुंचितं दक्षिणं भवेत्।।
प्रसार्य दक्षिणं हस्‍तं वामहस्‍तं तु पुष्‍पधृक्।
सर्वाभरणसंयुक्‍तौ सर्वालंकारसंयुतौ।।
भगीरथं दक्षिणे तु पार्श्‍वे मुनिवरान्वितम्। (शिल्परत्‍नम उत्‍तरभाग 22, 67-72)

इस शिल्‍प में भृंगिरीट को गंगाजल काे निहारते भी देखा जा सकता है। कलाकार ने पहले चित्र काे आकारित किया और फिर उसमें मूर्तिमय किया है...चित्र को देखकर संस्‍कृत को पढियेगा। हर शब्‍द स्‍वयं ही अपना अर्थ देता प्रतीत होगा। आभार Thiru Srinivasachar Gopal का जिन्‍होंने यह कीमती चित्रोपहार उपलब्‍ध करवाया। इन दिनों शिल्‍परत्‍नम् पर कार्य करते समय अनायास ही इस चित्र मिलने का आनंद मिला, तो आप सबको भी इस आनंद का पान करवाने का अवसर मिल गया है....

पूतना - राक्षसी या चेचक !

 होली के दिनों में पहले बच्‍चों को चेचक हुआ करती थी। अब तो चेचक का उन्‍मूलन हो गया मगर खसरा के नाम से कहीं कहीं आज भी ऐसा सुना जाता है। बहुत भंयकर व्‍याधि थी। आंखे चली जाती, चेहरे विभत्‍स हो जाते। लोग आज तो वह कहावत भूल गए हैं जबकि कहते थे - है तो वह चांद का टुकडा, मगर चांद के साथ तारे हैं। यानी मुंह पर चेचक के वण है।

चेचक को ही पूतना कहा गया है। मगर, हम यही जानते हैं कि कंस के राज में भगवान् कृष्‍ण को मारने के लिए पूतना पठाई गई थी और उसने जब दूध पिलाया तो कृष्‍ण ने उसका वध कर डाला.... इस कहानी को कितना रस ले लेकर सुनाया जाता है, कोई ये नहीं कहता कि कृष्‍ण ने इस बीमारी के उन्‍मूलन का प्रयास किया। हरिवंश, विष्‍णुपुराण आदि के आधार पर यही वर्णन भागवत में भी लिया गया है। आश्‍चर्य है क‍ि यह एकमात्र बीमारी है जो कृष्‍ण को हुई थी, मगर उस पर उन्‍होंने विजय पा ली थी। इसको बीमारी के रूप में लिखा ही नहीं गया

शायद यह पहला संदर्भ है जबकि चेचक के उन्मूलन का प्रयास हुआ हो, मगर इससे पहले रावण के राज में भी पूतना का प्रकोप था। रावण के नाम से जो आयुर्वेदिक ग्रंथ मिलते हैं, उनमें पूतना के प्रकाेप पर शमन के उपाय लिखे गए हैं। यानी रावण के राज में इस बीमारी के शमन पर पूरा जोर दिया जाता था ताकि बच्‍चे स्‍वस्‍थ, मस्‍त और प्रशस्‍त रहें तो देश का भविष्‍य ठीक रहेगा। आयुर्वेद के कोई भी प्राचीन ग्रंथ उठाइये, पूतना के उपाय लिखे मिल जाएंगे।

कई नामों और भेदों वाली होती थी पूतना। दो चार नाम तो मुझे भी याद आ रहे हैं जिनको हम बचपन में पहचाना करते थे - बडी माता, छोटी माता, बोदरी माता, सौकमाता, अवणमाता, झरणमाता, मोतीरा वगैरह। इन सब को लक्षणों के अनुसार पहचाना जाता था।

वास्‍तु के लिए 81 या 64 पद का आधार तैयार होता है, उसमें पिलीपिच्‍छा, चरकी, अर्यमा, पापाराक्षसी, विदारिका, स्‍कंद, जृम्‍भा और पूतना को गृहयोजना के बाहर ही रखकर पूजन किया जाता है। सभी वास्‍तु ग्रंथों में उसका जिक्र आया है, वास्‍तु पद न्‍यास में उसको भूलाया नहीं जाता ताकि घर में रहने वालों को कभी ये बीमारी नहीं हो। इसको लाल रंग के भात से पूजा करके मनाया जाता है, क्‍यों, इसलिए कि उसके प्रकोप के दौरान लाल चावल ही कभी खाए जाते थे। वे सब बातें हम सब भूल गए।

रही बात पूतना की, वह हमें सिर्फ इसलिए याद है कि उसको कृष्‍ण ने मारा था। केवल एक कहानी की शक्‍ल में। और, उसकी तस्‍वीरें, मूर्तियां, चित्र आदि भी इस प्रसंग को जीवंत बनाए रखते हैं। रावणसंहिता के  बाल औषधि विधान में एक प्रसंग में मंदोदरी ने रावण से कहा था कि ये मातृकाएं बालकों को अपनी चपेट में ले लेती है। नन्‍दना, सुनन्‍दा कंटपूतना, शकुनिका पूतना, अर्यका, भूसूतिका पूतना, शुष्‍करेवती वगैरहा। रावण ने तब कहा - तृतीय दिवसे मासे वर्षे वा गृह़णाति पूतना नाम मातृका तया गृहीतमात्रेण प्रथमं भवति ज्‍वर:। गात्रमुद्वेजयत‍ि स्‍तन्‍यं ऊर्ध्‍वं निरीक्षते।
 
 
प्रिय एमडी सदुरी रहमान और केरल के मित्रों का आभार कि ये चित्र उनके माध्‍यम से हम तक पहुंचे और यह सब याद दिलाने का विचार बना।