रविवार, 5 अप्रैल 2015

यशद की खान में यशकारी प्रासाद

दुनिया में यशद की सर्वप्रथम सौगात देने वाले 'जावर' क्षेत्र की ख्‍याति श्रेष्ठियों के संघ में जिनालयों और अंत:पुर निवासिनी रानियों के संकुल में महाराणा कुंभा की पुत्री रमाबाई के प्रासादोपहार के लिए रही है। उदयपुर जिले की सराड़ा तहसील में अपनी प्राचीनतम पत्‍थर खदानों के लिए बाबरमाल और धातु खदानों के लिए जावरमाल की ख्‍याति रही है। यही जावर मध्‍यकाल में चांदी जैसा उगलने वाला रहा जहां की चंद्रमा सी चमक वाली चांदी की ख्‍याति के चर्चे अरब तक 7वीं सदी तक होते थे और व्‍यापारी विमर्श करते थे कि मेवाड़ वाले चांदी का व्‍यापार सोने के साथ करते हैं, खैर धातुओं के लिए मेवाड़ की दरीबा और आगूंचा की खाने में सदियों पहले पहचान बना चुकी थी, मगर उनको खूब छुपाकर रखा गया था...।

 चैत्र की नवरात्रा में जावर इसलिए याद आया कि इन्‍हीं दिनों में यहां रमाबाई ने दामोदरराय का मंदिर कुंड सहित बनवाकर उसकी प्रतिष्‍ठा की थी। विक्रम संवत् 1554 का वर्ष और सूर्य की तिथि सप्‍तमी थी। गणना के अनुसार यह दिन शनिवार, 11 मार्च, 1497 ईस्‍वी था। यूं तो चैत्र में वास्‍तुकर्म निषिद्ध माना जाता है किंतु यहां मिला शिलालेख एक मात्र प्रमाण है कि इस माह में भी वास्‍तु प्रतिष्‍ठा का कार्य हुआ और वह भी बहुत बड़े पैमाने पर जिसमें दूर दराज से प्रतिष्‍ठाकर्मियों को बुलाया गया और उनको सुवर्ण के तार वाले वस्‍त्र, दुकूल आदि का वितरण किया गया। जावर की प्रसिद्ध प्रशस्ति उस काल के महान्‍यायविद महेश्‍वर दशोरा ने लिखी थी जो 40 श्‍लोक वाली है। इस प्रशस्ति में रमाबाई के गुण-चरित्र आदि बारे में पर्याप्‍त जानकारियां आलंकारिक रूप में लिखी गई है, पिछले दिनों इस प्रशस्ति का संपादन सहित पूरा अनुवाद भी किया था। हालांकि यह आज खंडित हो चुकी है। वर्तमान में यह मंदिर क्षेत्र रमानाथ मंदिर और रमानाथ कुंड के नाम से ही जाना जाता है। यह वर्तमान में राज्‍य पुरातत्‍व विभाग के अधीन है।

 इतिहास में रमाबाई की ख्‍याति वल्‍लकी नामक वीणा वादिका के रूप में रही है। संयोग से इस काल की अधिकांश देवांंगनाओं की प्रतिमाओं में वीणावादिकाओं का मनोहारी चित्रण मिलता है। उसकी ख्‍याति महाराणा कुंभा (1433-68 ई.) की पुत्री होने के साथ ही गुजरात-मेवाड़ के बीच बेटी संबंध के नाते भी रही है। जूनागढ़ के मंडलीक राजा से उसका विवाह हुआ। जब मंडलीक विधर्मी हो गया तो रमाबाई मेवाड़ लौट गई और गुजरात की वैष्‍णवीय भक्त्‍िा परंपरा के फलस्‍वरूप शैवधर्मावलम्‍बी मेवाड़ में विष्‍णु मंदिरों का सिलसिला शुरू किया, इसे खासकर महिलाओं के द्वारा निर्माण का क्रम माना जा सकता है। बाद में राजपरिवारों की नारियों में विष्‍णु मंदिरों का निर्माण की परंपरा बलवती हो गई। इस काल की दामोदरराय की प्रतिमाएं चित्‍तौड़ के कुंभस्‍वा‍मी मंदिर मे देखी जा सकती है। बाद में इसी परिवार की मीराबाई ने भी वैष्‍णव भक्ति मार्ग को ही अपनाते हुए खुलकर कहा -
 
' माई, मैं लियो गोविंदो मोल, कोई कहे छाने, कोई कहे चौड़े, मैं लियो बजन्‍ता ढोल...।'
 
रमानाथ का यह मंदिर पूर्वाभिमुख है और कभी पंच मंदिरों के समूह का परिचायक रहा है। सूत्रधार मंडन के पुत्र सूत्रधार ईश्‍वर को इसके निर्माण का श्रेय है जिसने 'प्रासाद मंडनं' ग्रंथ के निर्देशों के अनुसार शिखरान्वित मंदिर का निर्माण किया...। मंदिर का विवरण फिर कभी। जय- जय।

 (आदरणीय प्रो. पुष्‍पेंद्रसिंहजी राणावत साहब का आभार, उन्‍होंने याद दिलाया कि सप्‍तमी को इस रमानाथ मंदिर की स्‍थापना तिथि है तो क्‍यों न रमाबाई का पुण्‍यस्‍मरण कर लिया जाए, मुझे प्रियवर अरविंदकुमार भी याद आ रहे हैं जिन्‍होंने यह चित्र भेजा और प्रशस्ति का पाठ भी अनुवाद के लिए भेजा था।)

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