बुधवार, 24 दिसंबर 2014

तुला : कैसी, कितनी तुला

आज तो बाजार मे नित नए तौल करने के यंत्र देखने को मिलते हैं। ताकड़ी, कांटा, तराजू, तल... पलड़ों वाले तराजु से लेकर कमानीदार तुला और अब इलेक्‍ट्रॉनिक बेलेंस तक आ चुके हैं। मगर, पारंपरिक तुला शायद सब्‍जी बेचने वालों के पास ही देखने को मिले जहां आज भी बटखरों का प्रयोग होता है,, शायद पत्‍थर के बटखरे आज भी मिल जाए।
चाणक्‍य ने तुला का वर्णन किया है, पुराणों में तुलादान का वर्णन मिलता है। शिलालेखों में भी तुला पुरूष के दान का विवरण मिल जाता है। तुलजा भवानी की मान्‍यता भी रही है। क्षेमेंद्र ने तुला के प्रयोग और उनके बटखरों के बारे में जो जान‍कारियां दी हैं, वे प्राचीन काल ही क्‍या, आज भी लगता है जीवंत है।
 
तराजू सोलह तरह की होती थी, नाम याद हैं। देखियेगा -
  • वक्रमुखी (बांके कांटे वाली),
  • विषमपुटा (नीची ऊंची),
  • सुषिर तला (पलड़ों में छेद वाली),
  • न्‍यस्‍त पारदा (पारे से भरी),
  • मृद्वी (मुलायम पत्‍तर से बनी हुई),
  • पक्षकटा (बगल कटी),
  • ग्रंथिमती (गांठ पड़ी डोरी वाली),
  • बहुगुणा (बहुत ही डोरियों वाली),
  • पुरोनम्रा (आगे की ओर झुकी हुई),
  • वातभ्रांता (हवा से डगमगाने वाली),
  • तन्‍वी (हल्‍की),
  • गुर्वी (भारी),
  • परुषवात घृतचूर्णा (तेज हवा में धूल को जमा करने वाली),
  • निर्जीवा एवं
  • सजीवा।
है न तुला के अजीबो गरीब प्रकार, मगर इन पर सहज ही विश्‍वास होता है। और भी कई प्रकार हो सकते हैं। हमारे यहां रोड़ा और कांटा भी शब्‍द आए हैं -
 
"काली घणी कुरूप, कस्‍तूरी कांटा तुले।
सक्‍कर घणी सरूप, रोडा तुलै राजिया।।"
 
और हां,, बटखरे कैसे कैसे - सोपस्‍नेह (चिकनाई वाले बाट), स्‍वच्‍छ (चिपचिपे), सिक्‍थक मुद्र: (मोम लगाकर वजन बढ़ाये गए), बालुका प्राय (रेत लगाए गए)। सिंधु घाटी सभ्‍यता से लेकर आज तक बटखरों का इतिहास रोचक रहा है। कभी फिर,, इन बटखरों के मान प्रमाण के बारे में...।

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