शुक्रवार, 26 दिसंबर 2014

यों बनाई जाती थी प्रतिमाएं-

प्रतिमा का निर्माण नि:संदेह कठिन काम होता था। इसमें चित्रांकन, ताल-मान और शास्‍त्रीय स्‍वरूप निर्देश का ज्ञान आवश्‍यक होता है। भारतीय प्रतिमा शात्रों में ऐसा जिक्र है, इसीलिए हमारे यहां मूर्तिशास्‍त्रों से पहले चित्रशास्‍त्रों की परिकल्‍पना और रचना की गई। नग्‍नजित का विश्‍वकर्मीय चित्रशास्‍त्र इसका जीवंत रूप है। विष्‍णुधर्मोत्‍तर का चित्रसूत्र, मंजुश्रीभाषित चित्रशास्‍त्रम्, सारस्‍वत चित्रशास्‍त्रम्, ब्राहमीय चित्रशास्‍त्रम् आदि भी इसके बेहतर उदाहरण हैं।
सूत्रधार के निर्देश पर चित्रकार पहले पत्‍थर पर आलेखन कार्य करता। मेवाड़ के सूत्रधारों के अनुसार इस प्रक्रिया को 'डाकवेल' कहा जाता था। इसके बाद, तक्षक चीराई का काम करता और शिल्‍पी इसको गढ़ने का काम करता था। वह पत्‍थर को मुलायम रखने के लिए पानी का बेहतरीन तरीके से प्रयोग करता था ताकि मूर्ति श्‍लीष्‍ट, मुलायम बने। सम्‍पूर्ण लक्षण सम्‍मत रूपाकार होने पर ही प्रतिमा का उपयोग किया जाता था। अन्‍यथा उसको जलाशयों के पास किसी दीवार के काम में लाने को दे दिया जाता। जैसा कि चित्‍तौड़गढ़ में हुआ है।

हाल ही मित्रवर ललितजी शर्मा ने बिलासपुर जिला छत्तीसगढ़ के प्राचीन नगर मल्हार में एक मूर्ति का डाकवेल वाला प्रमाण खोजा है। वह बताते हैं कि पुरातात्विक प्रमाणों के आधार पर इसका इतिहास ईसा पूर्व 1000 वर्ष तक माना जाता है। यहाँ के देऊर मंदिर के द्वार पट पर उनको जस प्रतिमा का लेआऊट दिखाई वह महिषासुर मर्दिनी का है। शिल्पकार प्रतिमा बनाना चाहता था पर पता नहीं क्या कारण रहा होगा, उसने इसे अधूरा छोड़ दिया। इस तरह का ले आऊट पहली बार किसी स्थान पर देखने मिला है।

इसमें देवी का कात्‍यायनी रूप है, वही जो अलोरा से लेकर अन्‍यत्र भी लोकप्रिय रहा है। मत्‍स्‍यपुराण में इसका विवरण है जिसको देवतामूर्तिप्रकरणम में सूत्रधार मंडन ने उद्धृत किया है। इसमें देवी के बायें स्‍कंध पर शुक भी अंकित है, यह शुकप्रिया अंबिका का रूप है। इस पर आम्रलुम्बिनी परंपरा का प्रभाव होता था। देखियेगा, और अन्‍यत्र भी ऐसे रेखांकन याद कीजिएगा। मेरे लिए तो चित्‍तौड के समीधेश्‍वर मंदिर और राजसमंद झील के रेखांकन स्‍मरण में आ रहे हैं। 

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