शुक्रवार, 26 दिसंबर 2014

मूर्तिमय मां - एक भारतीय परंपरा

भारतीय शिल्‍पशास्‍त्रों में नारी का अलंकारिक स्‍वरूप तो बनाया जाता ही है मगर उसको शिशु सहित भी दिखाया जाता है। वाराही आदि मातृका रूपों में भी ऐसा होता है मगर, मानवीय प्रतिमाओं में शिशुओं को गोद में लिए नारियों को चित्रित, उत्‍कीर्णित दिखाने की परंपरा छठवीं सदी से मिलती है। नवीं-दसवीं सदी तक तो यह छवि इतनी लोकप्रिय हो गई कि मन्दिर-मन्दिर के बाहरी जंघा भाग इन प्रतिमाओ से आकीर्ण दिखाए जाने लगे। पश्चिमी क्षेत्र से लेकर पूर्व तक ये स्‍वरूप बने।

वास्‍तुविद्या, शिल्‍पप्रकाश आदि ग्रंथों में इस छवि को ''शिशुक्रीड़ा'' नाम दिया गया है। ऐसी छवि जिसमें नारी अपने शिशु को अपनी गोद में उठाए हुए हो। ये छवियां दुग्‍धपान कराती भी दिखाई जाती। इनका मूल मत्‍स्‍यपुराण का पार्वती और वीरक-स्‍कंद का आख्‍यान है अथवा कालिदास के कुमारसम्‍भव की पृष्‍ठभूमि, कहा नहीं जा सकता मगर यह लगता है कि शैलसुता ने अपने सुत को लोरी सुनाकर या क्रीड़नक के सहारे बहलाकर जो वात्‍सल्‍य प्रदर्शित किया, वह मूर्तिकारों की प्रेरणा बन गई।

Yuga Karthick का आभार कि उन्‍होंने एक प्रतिमा की छवि भिजवाई है जिसमे खड़ी हुई मां अपने शिशु को गोद में उठाए हुए रुदन को शांत करवा रही है। उसके हाथ में शिशु है तो दूसरे में वह अपनी केशराशि के पास झुनझुना बजाकर उसको बहला रही है। इस छवि का तालमान तो स्‍मरणीय है ही, बनाने वाला शिल्‍पी जरूर लंबे कद का रहा होगा। वह अलंकरणों का भी प्रेमी रहा होगा, उसने सिर से लेकर पांव तक सुहागिन माता को अलंकृत किया है।

झीने वस्‍त्र भी दर्शनीय है मगर सबसे रूचिकर है ममतामयी वह छवि जिसमें मातृत्‍व का भाव हिलोर लेता अपनी प्रतीति दे रहा है। धनुषाकार स्थिति, एकाधिक भंगीय न्‍यास, शिशु का कोणाकार स्‍वरूप और बहलाव का अंदाज... वाह सच में एक भारतीय मां... जो शिशुरंजना होकर अपना रंजन कर रही है। देखियेगा, अपने आसपास और कौन-कौन से देवालयों की दीवारों पर मां-बेटे का ये रूप रूपाकार हो रहा है....।

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