शुक्रवार, 26 दिसंबर 2014

राजस्थान का खजुराहो 'जगत का अम्बिका मंदिर'- प्रणयलीन प्रतिमाओं का भण्डार- डॉ. श्रीकृष्ण ‘जुगनू


राजस्‍थान का खजुराहो कहा जाने वाला उदयपुर का जगत मंदिर प्रणयलीन प्रतिमाओं का सुन्दर भण्डार है। प्रासादों में प्रणय प्रतिमाएं बनाने की परंपरा इसके निर्माण काल तक महत्व प्राप्त कर चुकी थी। देवकन्याओं, सुरसुन्दरियों को देवताओं के साथ विभिन्न मुद्राओं में दिखाया जाने लगा था, जिसका सुंदर उदाहरण यहां देखने को मिलता है। मंदिर में पान गोष्ठियां, चषक के साथ मधुपान, नर्तन, गायन, वादन सहित संगम-समागम के सरोकार जैसे कई दृश्य यहां शिलापट्टों पर उत्कीर्ण हैं। ये पूर्व मध्यकालीन सामाजिक परंपराओं और विलासी नागरक या नगरीय जीवन की प्रवृत्तियों की जीती-जागती तस्वीरें हैं।

देवालयों की शाखाओं को मिथुन मूर्तियों से सज्जित-मण्डित करने का प्रचलन इस काल में एक आवश्यक अंग हो चुका था। ऐसे में यहां भी विभिन्न थरों-शाखाओं का चित्रीकरण इन रूपों से करते हुए प्रासाद के बाह्य भाग को अलंकृत किया है। कंदुक क्रीड़ा, पदगत कंटकशोधन, सद्यस्नाता जैसी नायिका प्रतिमाएं यहां अपने लक्षणों के साथ-साथ सुरुचिपूर्ण सौन्दर्ययष्टि का जीवन्त साक्ष्य है।

यह मन्दिर सचमुच सांस्कृतिक-धार्मिक विरासत का विचित्र स्तम्भ कहा जा सकता है। पुरातत्व विभाग के अधीन यह संरक्षित है मगर यहां से मूल प्रतिमा गत दशक में चोरी चली गई। सभा मण्डप स्थित नृत्य गणपति की प्रतिमा को भी उखाड़कर ले जाने के प्रयास दो-तीन बार हो चुके हैं। ऐसे में यह प्रासाद मूर्ति तस्करों की नजर में है, सुरक्षा की दृष्टि से निरापद नहीं है। कितनी विडम्बना है कि जिसको सुरक्षित, संरक्षित रखने के प्रयास राजाश्रय में सदियों तक होते रहे, उसकी सुरक्षा के प्रयास अपर्याप्त है। क्या सार्वजनिक सम्पति किसी की नहीं होती, जिन प्रासादों की सुरक्षा के लिए लोगों ने प्राणों तक की परवाह नहीं की, उनकी प्रतिमाओं को चुराने के प्रयास उन्हें प्राण विहीन ही कर रहे हैं। फिर, जो प्रासाद विरासत के संरक्षण का पाठ पढ़ा रहा है, उसकी अनदेखी विचारणीय है।

जगत में विरासत संरक्षण का पाठ :

राजस्थान की मन्दिर-विरासत में जगत गांव के जगदंबिका प्रासाद का स्थान अतीव महत्वपूर्ण है। इसे राजस्थान के खजुराहो के रूप में नामांकित किया गया है। उदयपुर जिला मुख्यालय से लगभग पचास किलोमीटर आग्नेय कोण में कुराबड़ के पास जगत गांव के बाहर बना यह अपने अंक में लगभग एक हजार साल की कला, धर्म और आनुष्ठानिक स्मृतियां संजोये हुए है। मानव मन की आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए आवश्यक ऊर्जा-शक्ति, सृष्टि की निरन्तरता के लिए अपरिहार्य काम-शक्ति और जीवन के धारणा ध्येय के लिए अपेक्षित धर्म-शक्ति का यह जीता जागता उदाहरण है। यूं भी प्रासाद स्थापत्य की बुनियाद इन तीनों ही वांछित वर्गों की पूर्ति में सहायक स्वीकारी गई है। ये वर्ग हमारी सात्त्विक विरासत है जिनका सम्बन्ध मानवीय भावों से है और ये सांस्कृतिक तत्व की तरह मानव को अपने सभ्य समाज से जन्मतः: सुलभ होते हैं।

पुरखों का लिखा है विरासत को बचाए रखने का संदेश :

यह मन्दिर प्रदेश की उन स्थापत्य रचनाओं में स्वीकारा जाता है जो किसी हमले में ध्वस्त या खण्डित-भंजित होने से अक्षुण्ण रहा। बल्कि, विरासत को अक्षुण्ण रखने सहित उसके संरक्षण-संवर्धन के जीवनोपयोगी मूल्य और पुण्यफल का पाठ भी पढ़ा रहा है। यही वह प्रासाद है जिसके स्तम्भ पर आज से लगभग 1054 वर्ष पूर्व तत्कालीन महारावल अल्लट के शासनकाल (विक्रम संवत् 1017, ईस्वी 960) पुरखों की विरासत को बचाए रखने के संदेश के साथ-साथ इस पुण्यकर्म के स्वाभाविक फल को भी आदर्श रूप में लिखा गया है :
वापी-कूप-तडागेषुु-उद्यान-भवनेषु च।
पुनर्संस्कारकर्तारो लभते मूलकं फलम्॥
इस श्लोक में विरासत के महत्व के स्थलों के रूप में सीढ़ी वाले कुएं या बावड़ी, कुआं, तालाब-तड़ाग जैसे जलस्रोत, पर्यावरण को शुद्ध रखने वाले उद्यान और बावडिय़ां तथा सार्वजनिक हित के विश्रान्ति भवन, शैक्षिक स्थल, आश्रमीय मठ, देवालय आदि के संरक्षण के भाव से उनका पुनर्संस्कार करने की प्रेरणा देते हुए कहा गया है जो कोई संकल्पित होकर पुनरुद्धार करवाता है तो वह उसी फल से लाभान्वित होता है जो कि मूल कार्य करवाने से मिलता है। यह वह ध्येय वाक्य है जो विगत दो हजार सालों से विश्व समुदाय को अपनी विरासत की अनदेखी नहीं करने की प्रेरणा दे रहा है। मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त की जूनागढ़ स्थित सुदर्शन झील के पुनर्संस्कार से ऐसा ही पुण्यफल क्षत्रप शासक रुद्र दामन (105 ई.) और प्रान्तपाल चक्रपालित (455-56 ई.) ने प्राप्त किया था। बाद में यही फल-कथन हमारी विष्णु-धर्म, बृहस्पति, यम और शंखलिखित जैसी स्मृतियों और आग्नेय, विष्णु-धर्मोत्तर, गरुड आदि पुराणों में वर्णित मानव-कर्तव्यों का निर्देश वाक्य भी बना। हयशीर्षपञ्चरात्र में तो यह तक कहा गया कि वापी, कूप, तालाब, देवालय, प्रतिमा, सभागृह आदि का समय-समय पर संस्कार करवाते रहना चाहिए। इससे पुण्यात्मा को मूलकार्य की अपेक्षा सौ गुना पुण्य नि:सन्देह मिलता है।

अम्बिका देवी का समर्पित है जगत मंदिर:

जगत का यह प्रासाद मूलत: अम्बिका देवी को समर्पित है। यह महिषासुर मर्दिनी के स्वरूप और मन्दिरों की उसी परंपरा में बना है जो कि उत्तर-पश्चिमी भारत में बहु लोकप्रिय परिपाटी के रूप में व्यवहार्य रही। हालांकि राजस्थान देवी के इस रूप के प्रति आस्था की विरासत लगभग दो हजार सालों सहेजे हुए है। हर्षोत्तरकाल में क्षत्रियों ने जब अपने राजवंशों को क्षेत्रीयता के अनुसार स्थापित करने का प्रयास किया तब इस तरह इष्ट कुलदेवियों और शक्तिस्थलों को बनाए जाने लगे बल्कि, निर्माण की यह परंपरा बहुत बलवती रही। योगिनियों से लेकर मातृ देवियों, लीला देवियों और शास्त्रीय रूप में स्वीकृत लोक माताओं के भी मन्दिर सामने आए, भले ही पंचायतन शैली के मन्दिर ही क्यों न हो।

नवीं सदी में बन चुका था यह मंदिर:

यह मन्दिर कब बना, ज्ञात नहीं। चार अभिलेख यहां से मिले हैं, उनमें इसके जीर्णोद्धार या संस्कारों का ही जिक्र है। इनमें से प्राचीन ज्ञात अभिलेख विक्रम संवत् 1017 का है जबकि इससे पूर्व यह मन्दिर बन चुका था। प्रमाण सिद्ध करते हैं कि यह 850 ईस्वी के बाद बन चुका था। यह समय प्रतिहार शासक महिपाल का था। प्रतिहारों को उनके अभिलेखों में ‘परम भगवति भक्तो’ या शाक्त लिखा गया है। फिर, यह मन्दिर उनके ग्यासपुर के देवी मन्दिर जैसी स्थापत्य रचना को ग्रहण किए है। यही नहीं, प्रतिहारों के 843 व 816 ईस्वी के दानपत्रों में चतुर्भुज गोधासना देवी प्रतिमाएं उत्कीर्ण हैं। इस काल के शिल्पशास्त्रों के अनुसार गोधासना वे देवी प्रतिमाएं हैं जिनको गोह नामक जन्तु पर आरूढ़ दिखाया जाता है जैसा कि बुचकला-जोधपुर के 873 ईस्वी में बने शिवालय में चतुर्भुजी पार्वती गोह पर आरूढ़ है। यही स्वरूप जगत के मन्दिर के प्रवेशद्वार के दक्षिण-पूर्वी मण्डोवर भाग में षड्भुज, पद्मासनस्थ पार्वती का है जो कि गोधासना है, हालांकि इसके निर्माणकाल पर विशेष विचार की जरूरत है किन्तु यह तय है कि यह नवीं सदी में बन चुका था और निर्माण के कुछ समय बाद ही इसके जीर्णोद्धार और पुन: ध्वजा सहित कलशारोहण जैसे कार्यों से इसके सौन्दर्य सहित अर्चना के स्वरूप को निरन्तर रखा गया।


देखने को मिलते हैं देवी के कई रूप:

अम्बिका की पृष्ठभाग में उत्कीर्ण प्रतिमा शुक सहित है। शुक्रप्रिया अम्बिका का यह स्वरूप पश्चिमी गुहा या लयन प्रासादों से लेकर शास्त्रों तक में वर्णित है। वैसे यहां शुम्भहन्त्री देवी रूप में महिष का स्वरूप पशु और मानवीय दोनों रूपों में मिलता है। जगत के इस मन्दिर की अन्य प्रमुख रचनाओं में मकरमुख प्रणाल, शिखर की संवरणाएं और जलान्तर सहित शिखर विधान मुख्य है। यह नागर शैली की स्थानीयता का प्रतिनिधित्व करते हुए निरूपित किया गया है।
प्रतिहार कालीन यह प्रासाद उन अखंड रचनाओं का प्रतिनिधित्‍व करता है जिनमें शिखर अभी भी विद्यमान हैं। मनुष्‍य की शिरोरचना की तरह ही इस प्रासाद का शिखर गढ़ा गया है और लगता है कि संपूर्ण अपेक्षित शिखर का प्रमाण एक-एक सूत सहित पहले कल्पित करके एक-एक पाषाणखंड भूमि पर ही गढ़ा गया और फिर शिखर पर चढ़ाया गया। अपराजित पृच्‍छा में इस प्रकार के शिखर विधान का अंतिम विवरण लिखा गया, यही विवरण 'कलानिधि' ग्रंथ के रूप में सूत्रधार गोविंद ने उद्धृत किया, विडंबना है कि हमारे पास ऐसे शिखर विधान का विशारद अब नहीं है, कलानिधि का संपादन करते समय मैं शिखर पर डाली जाने वाली कलाओं के नाम और उनके प्रमाण का ही अनुवाद करके रह गया, बहुत प्रयास किया कि कोई तो इनका खुलासा करे, मगर न हो सका,,, ऐसे प्रासाद का शिखर देखने पर आश्‍चर्य ही लगता है
आलेख:- डॉ. श्रीकृष्ण ‘जुगनू (दैनिक भास्कर के 19 नवम्बर, 2014 के अंक में प्रकाशित)

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