बुधवार, 24 दिसंबर 2014

च से चाणक्‍य,,, जी हां !

चाणक्‍य के अर्थशास्‍त्र के प्रणयन के उद्देश्‍य की पीठिका के रूप में जो पंक्ति लिखी गई, उसको पढ़कर एक बार तो हंसी आती है, मगर जीवन में देखते जाएं कि कितना कटु सच उस राजनीति के आचार्य ने लिखा है। जातकों को आधार मानें तो 600 ई. पू. तक भारत में राजनीति के मूल सिद्धांतों के रूप में अर्थशास्‍त्र पढाया जाता था। आचार्य उष्‍ण के राजनीतिशास्‍त्र संबंधी ग्रंथ को 'दण्‍डनीतिशास्‍त्र' कहा जाता था और वृहस्‍पति के ग्रंथ को 'अर्थशास्‍त्र'। चाणक्‍य ने अपने शास्‍त्र के प्रणयन में पूर्ववर्ती अर्थशास्‍त्र के 18 आचार्यों के मतों को उद्धृत किया है। कहीं पर उनको स्‍वीकारा तो कहीं पर नकारा और अपना मत प्रतिपादित करने का प्रयास किया। चाणक्‍य ने कहा था-- ''मेरा ये शास्‍त्र उनके लिए नहीं है जो समझदार है और ये उनके लिए भी नहीं जो नासमझ हैं बल्कि ये उन चंद चतुरों के लिए हैं जो दोनों को ही हांक सकते हैं।''


ये अठारह आचार्य थे-

 
1. मनु,
2. वृहस्‍पति,
3.उशनस या शुक्र,
4. भारद्वाज या द्रोण,
5. विशालाक्ष,
6. पाराशर,
7. पिशुन,
8. कौणपदंत,
9. वातव्‍याधि या उद्धव,
10.बाहुदंती पुत्र,
11.कात्‍यायन,
12. कर्णिका भारद्वाज,
13. चारायण,
14. घोटमुख,
15. किंजल्‍क,
16. पिशुनपुत्र,
17. अम्‍भीयक्ष और
18. अज्ञातकर्तक जिसका नाम तब तक लुप्‍त हो गया था, शायद वह आचार्य उष्‍ण हो।

तक्षशिला के निवासी चाणक्‍य ने अपने मत को बहुत कठोर लिखा और सच लिखा, जो कुछ लिखा, वह आज भी देखा जा सकता है। मगर, चाणक्‍य को महत्‍वहीन करने का प्रयास जल्‍द ही होने लग गया। हर्षवर्धन के दरबारी बाणभट्ट (700 ई.) जो पुराणों का प्रशंसक था, ने कौटिलय के अर्थशास्‍त्र की निंदा ही की है और कहा है कि उन लोगों का क्‍या कहा जाए तो चाणक्‍य की प्रशंसा करते हैं...। दसवीं सदी तक स्‍कंधावार बनाने के उद्देश्‍य से अर्थशास्‍त्र के मतों को देखने का निर्देश राजा भोज करते हैं। मगर उसके अन्‍य मत समाज में रहे हों, यह विदित नहीं होता।
हां, इसी काल के आसपास बहुत चतुराई के साथ चाणक्‍य की नीति को जरूर लिखा गया, और वे श्‍लोक चुने गए जो सुभाषित रहे हैं। कई श्लोक तो भर्तृहरि के लिए गए और कुछ हितोपदेश आदि से...। ऐसा क्‍यों किया गया, यह कहने की जरूरत नहीं। यही नही, हमारे यहां तो चाणक्‍य के अनुयायी कामन्‍दक को भी खारिज कर दिया गया, तभी तो उसका पूरा ग्रंथ बाली द्वीप में पाया गया जो वहां 8वीं सदी के पहले तक पहुंच गया था।

  ... मगर हां, चाणक्‍य ने जो कुछ कहा, वह इतना प्रासंगिक है कि जब यह ग्रंथ मैसूर के श्री शामा शास्‍त्री और बाद में अनंतशयन ग्रंथावली के संपादक श्री तरुवागम गणपति शास्‍त्री के प्रयासों से समग्रत: सामने आया, 1919 ई. तक, तो रुस में साम्‍यवादी क्रांति हो रही थी। इस ग्रंथ की अधिकांश प्रतियों की खपत रूस वालों ने की, मगर भारत में आज तक यह ग्रंथ घर-घर नहीं पहुंचा। यदि इस अर्थशास्‍त्र के विचारों का प्रचार निरंतर भारतीय समाज में रहता तो हमारी सांस्‍कृतिक मानसिकता में आतंक को जवाब देने की त्‍वरा रहती, परामर्श देने की बजाय पांव पर खड़े होने की हिम्‍मत रहती और... वह सब कुछ होता जिसकी आज जरूरत है...क्‍या, यह जरूर सोचियेगा। इस मुद्दे पर कभी फिर,,,,।
 

 

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