शनिवार, 21 मार्च 2015

उज्‍जयिनी चिह्न : जिसे मुद्रा पर मान्‍यता मिली


बात 124 ईस्‍वी की होगी। सातवाहन राजा गौतमीपुत्र शातकर्णी ने क्षहरात क्षत्रप नहपान के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए युद्ध का निश्‍चय किया और महाराष्‍ट्र के पास जुन्‍नर नामक जगह पर न केवल उसके शिकस्‍त दी बल्कि तलवार के घाट भी उतार भी दिया। नहपान (119-124 ई.) मुद्रा के सहारे त्रिभाषा सूत्र का पहला प्रयोगधर्मी था। उसके सिक्‍के चांदी के होते थे और सिक्‍कों पर पूर्वभाग पर उसकी छवि के साथ ही यूनानी लेख था जबकि पृष्‍ठभाग पर वज्र सहित बाण जैसे आयुध के साथ तत्‍कालीन ब्राह्मी लिपि में ''राज्ञो क्षतृरातस नहपानस'' और खरोष्‍टी लिपि में ''रजो छहरतस नहपनस'' लेख उत्‍कीर्ण होता था।

गौतमीपुत्र शातकर्णी ने नहपान पर जीत दर्ज करने के साथ ही उसके अधिकार क्षेत्र की टकसाल सहित जन-सामान्‍य से सिक्‍कों का संग्रह किया। यों तो पहले के शासक जीत के बाद हारे हुए शासकों के सिक्‍कों को गलाकर अपनी मुद्रा जारी करते थे लेकिन शातकर्णी ने नहपान के सिक्‍कों को गलाया नहीं। उसने उन सिक्‍कों के पुनर्लांछित या पुनर्टंकित किया। नासिक के पास जोगळटेंभी नामक जगह से नहपान के गड़े हुए 13,250 सिक्‍के मिले हैं जिनमें से 9270 सिक्‍कों को पुनर्चक्रण के लिए पुनर्टंकित किया गया है। इससे पूर्व इस प्रकार का एक प्रमाण सिकंदर के सिक्‍के का मिलता है।

राजाज्ञा से पुनर्चिह्न के रूप में नहपान के सिक्‍के पर मेरुगिरि पर उदित होते हुए चंद्रमा या सूर्य और 'उज्‍जयिनी चिह्न' का प्रयाेग किया। यह चिह्न उससे पहले प्रयोग में था या नहीं, मालूम नहीं मगर इस चिह्न ने सिक्‍कों पर एक शैवनगरी को प्रतीकात्‍मक रूप से महत्‍वपूर्ण बनाया। इस चिह्न के रूप में दो डेंबल्‍स का प्रयाेग किया गया है अथवा चार वृत्‍तों का, यह विचारणीय है मगर चार वृत्‍त बहुत विचार के साथ प्रयोग में लाए गए हैं क्‍योंकि उन वृत्‍तों के भीतर छोटे वृत्‍त मिलते हैं, यह कुंड की मेखला की तरह है या जलहरी सहित शिवलिंग की तरह, यह विचारणीय है, क्‍योंकि वृत्‍तों के भीतर पुन: नंदिपद और स्‍वस्तिक के चिह्न बनाए गए हैं।

इस प्रकार के वृत्‍तादि का रूपांकन रेखांकन के संदर्भ में वैदिक शुल्‍बसूत्र से विचारित है। ये चार वृत्‍त चतुरंगिणी सेना के प‍रिचायक हैं अथवा चार सागर के क्‍योंकि उस काल तक पृथ्‍वी पर चार सागरों की मान्‍यता ही थी। ये चार संघों के बोधक भी हो सकते हैं या चार आश्रमों के... यह सोचने वाली बात हैं। मगर, यह जरूर हो सकता है कि महाकाल की नगरी को केंद्र माना गया था ऐसे में यह चिह्न विकसित हुआ हो। मगर, बात बड़ी रोचक है,, उज्‍जैन के पुराविद डॉ. रमन सोलंकी कहते हैं कि यह चिह्न उन मुद्राओं पर भी मिला है जो यहां से रोम पहुंची थी यानी रोम तक उज्‍जयिनी चिह्न स्‍वीकार्य रहा, और आज की मुद्रा... बस यही विचार योग्‍य है।
 

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