शनिवार, 21 मार्च 2015

एक थे वररुचि : अश्‍वशास्‍त्र के प्रणेता


विक्रमादित्‍य के दरबारियों में एक रचनाकार थे वररुचि। माना जाता है कि वह नवरत्नों में थे, मगर उनकी रचना प्रकिया और उनके विषयों की उपयोगिता पांचवीं सदी के आसपास की लगती है। इसी काल से उनकी उक्तियां मिलती हैं जो पठन-पाठन में व्‍यवहार्य हो गई। उनके ग्रंथों की चर्चा कश्‍मीर तक थी। उत्‍पल भट्ट जैसे विवृत्तिकार के संग्रह में वररुचि का अश्‍वशास्‍त्र विद्यमान था। यह ग्रंथ बहुत ही महत्‍वपूर्ण रहा होगा तभी तो उसने वराहमिहिर के अश्‍ववर्णन प्रसंगों की तुलना वररुचि के विवरण से की। वैसे उत्‍पल का प्रयास रहा है कि वराहमिहिर के ग्रंथों की टीका करते समय जो-जो भी ग्रंथ वराह के सामने रहे, उन सभी को वह टीका में संदर्भ सहित प्रस्‍तुत करें। इसीलिए उसकी टीकाएं सबसे महत्‍वपूर्ण मानी गई हैं।

पिछले दिनों उज्‍जैन में महाराजा विक्रमादित्‍य शोधपीठ के निदेशक आदरणीय डॉ. भगवतीलालजी राजपुरोहित ने वररुचि विरचित ' पत्र कौमुदी' की एक प्रति मुझे दी तो मैंने कहा कि वररुचि वही जिन्‍होंने अश्‍वशास्‍त्र लिखा, तो वह पूछ बैठे- ये अश्‍वशास्‍त्र कौनसा है। मैंने कहा- वही जिसको उत्‍पल ने बताया है।
बोले- उसको खोजिये। मैंने कहा- तैयार है...।

उत्‍पल ने वररुचि के अश्‍वशास्‍त्र के केवल संदर्भ ही नहीं दिए, बल्कि पूरा ही अश्‍वशास्‍त्र उद्धृत कर दिया। अच्‍छा हुआ जो एक शास्‍त्र बच गया, वरना यह कौन कह सकता था जिन वररुचि की ख्‍याति निघंटु, सुभाषित वचन और पत्रकौमुदी जैसे रचनाकार की हैसियत से जानी जा रही है, वह अश्‍ववैद्यक या अश्‍वशास्‍त्री भी थे।

वररुचि का अश्‍वशास्‍त्र अधिक बड़ा नही, संक्षिप्‍त है। संक्षिप्‍त ही होना चाहिए क्‍योंकि सूत्र रूप में सही, उन्‍होंने अश्‍वविद्या को लिख दिया। उन्‍होंने कहा कि यह ज्ञान तीनों ही लोक में है, इसको मुनिजन जानते है, यूं तो अश्‍वों के विस्‍तृत लक्षणों को कहना बहुत कठिन हैं, वह जानने में तक कठिन है उनके लिए भी जो अच्‍छी बु‍द्धि वाले हैं मगर जिनको जानकारी नहीं है, उनके लिए संक्षिप्‍त में कहता हूं। मेरी रचना में स्‍पष्‍टता रहेगी, मधुर छंद है और इन्‍हीं के सहारे संक्षेप में अश्‍वों के वर्ण, आवर्त, प्रभा, अंग, स्‍वर, गति सहित सत्‍व, गन्‍ध आदि को कहता हूं :

ज्ञानं त्रैलोक्‍य विद्भिर्मुनिभिर‍भिहितं लक्षणं यद्विशालं
दुर्ज्ञेय तद्वहुत्‍वादपि विमलाधिया किं पुनर्बुद्धिहीनै:।
तस्‍मादेतत् समासात् स्‍फुटमधुरपदं श्रूयतामश्‍वसंस्‍थ
वर्णावर्त्‍त प्रभांगस्‍वरगतिसहितै: सत्‍त्‍वगन्‍धैरुपेतम्।।


मुझे मालूम है कि मोटर साइकिल, बस, कार आदि के दौर में घोड़ों के विषय में जानने की सबकी रुचि कम होगी... अब तो घोड़ा केवल दूल्‍हा बनने पर ही याद आता है मगर याद कीजिएगा कि यह जानवर मानव का इतना खास सखा, सहचर और संगी रहा कि उतना साथी अपना सहोदर भी नहीं रहा। सिकंदर ने अपने अश्‍व का स्‍मारक बनवाया। महाराणा प्रताप का स्‍मारक भले ही ना बना मगर चेटक का स्‍मारक बना। याद है न उसने हल्‍दीघाटी युद्ध के बाद तीन टांग पर दौड़ लगाई, अपनी पुतलियां झाड़कर जिसने सहोदर सहित शत्रु सैनिकों का पीछे लगना भांप लिया, प्रताप
को प्राणदान देने के लिए रास्‍ते में पड़े नाले को लांघना उचित समझा और पलक झपकने पहले ही स्‍वामी के हिस्‍से की मौत को झपट लिया, उसके बदले अपनी जान लगा दी...। कई योद्धाओं के स्‍मारक चिन्‍हों, पालियों-पाडियों, वीरगलों में योद्धाओं के साथ उनके अश्‍वों को भी पूजा जाता है...। सच है न।
वररुचि के इस शास्‍त्र की खोज और उसके पाठ का निर्धारण-अनुवाद सचमुच गौरवस्‍पद होगा। विभूतियों में वर्रेण्‍य वररुचि के बारे में फिर कभी...।

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