दुनिया में यशद की
सर्वप्रथम सौगात देने वाले 'जावर' क्षेत्र की ख्याति श्रेष्ठियों के संघ
में जिनालयों और अंत:पुर निवासिनी रानियों के संकुल में महाराणा कुंभा की
पुत्री रमाबाई के प्रासादोपहार के लिए रही है। उदयपुर जिले की सराड़ा तहसील
में अपनी प्राचीनतम पत्थर खदानों के लिए बाबरमाल और धातु खदानों के लिए
जावरमाल की ख्याति रही है। यही जावर मध्यकाल में चांदी जैसा उगलने वाला
रहा जहां की चंद्रमा सी चमक वाली चांदी की ख्याति के चर्चे अरब तक 7वीं
सदी तक होते थे और व्यापारी विमर्श करते थे कि मेवाड़ वाले चांदी का
व्यापार सोने के साथ करते हैं, खैर धातुओं के लिए मेवाड़ की दरीबा और
आगूंचा की खाने में सदियों पहले पहचान बना चुकी थी, मगर उनको खूब छुपाकर
रखा गया था...।
चैत्र की नवरात्रा में जावर इसलिए याद आया कि इन्हीं दिनों में यहां रमाबाई ने दामोदरराय का मंदिर कुंड सहित बनवाकर उसकी प्रतिष्ठा की थी। विक्रम संवत् 1554 का वर्ष और सूर्य की तिथि सप्तमी थी। गणना के अनुसार यह दिन शनिवार, 11 मार्च, 1497 ईस्वी था। यूं तो चैत्र में वास्तुकर्म निषिद्ध माना जाता है किंतु यहां मिला शिलालेख एक मात्र प्रमाण है कि इस माह में भी वास्तु प्रतिष्ठा का कार्य हुआ और वह भी बहुत बड़े पैमाने पर जिसमें दूर दराज से प्रतिष्ठाकर्मि
इतिहास में रमाबाई की ख्याति वल्लकी नामक वीणा वादिका के रूप में रही है। संयोग से इस काल की अधिकांश देवांंगनाओं की प्रतिमाओं में वीणावादिकाओं का मनोहारी चित्रण मिलता है। उसकी ख्याति महाराणा कुंभा (1433-68 ई.) की पुत्री होने के साथ ही गुजरात-मेवाड़ के बीच बेटी संबंध के नाते भी रही है। जूनागढ़ के मंडलीक राजा से उसका विवाह हुआ। जब मंडलीक विधर्मी हो गया तो रमाबाई मेवाड़ लौट गई और गुजरात की वैष्णवीय भक्त्िा परंपरा के फलस्वरूप शैवधर्मावलम्बी
' माई, मैं लियो गोविंदो मोल, कोई कहे छाने, कोई कहे
चौड़े, मैं लियो बजन्ता ढोल...।'
रमानाथ का यह मंदिर पूर्वाभिमुख है और
कभी पंच मंदिरों के समूह का परिचायक रहा है। सूत्रधार मंडन के पुत्र
सूत्रधार ईश्वर को इसके निर्माण का श्रेय है जिसने 'प्रासाद मंडनं' ग्रंथ
के निर्देशों के अनुसार शिखरान्वित मंदिर का निर्माण किया...। मंदिर का
विवरण फिर कभी। जय- जय।
(आदरणीय प्रो. पुष्पेंद्रसिंह
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