मंदिरों के निर्माण
का अपना वैशिष्ट्य रहा है। युगानुसार भी और क्षेत्रानुसार भी उनका
निर्माण होता रहा है। वे तल या अधिष्ठान से लेकर शिखर या स्तूपी तक अपना
आकार मानव के शरीर के रचना की तरह ही अपना स्वरूप रखते हैं। उनकी सज्जा
या अलंकरण का अपना खास विधान रहा है और इसके लिए शिल्पियों ने अपने कौशल को
दिखाने में प्रतिस्पर्द्धा सी की है।
प्रासादों के स्वरूप के निर्णय के लिए हमें हमारे शिल्प ग्रंथों को जरूर देखना चाहिए जिनमें उनके रचनाकाल से पूर्व की परंपराओं को लिखा गया है। मयमतं हो या मानसार या फिर शैवागम अथवा वैष्णवागम हों, उनमें प्रासादों की रचना के लिए पर्याप्त विवरण मिलता है। दक्षिण के नारायण नंबूदिरीपात ने 'देवालय चंद्रिका' में प्रासादों के शिल्प के लिए निर्देश किए हैं तो सूत्रधार मंडन ने 'प्रासादमण्डनम ्'
में प्रासादों के संबंध में समग्र योजना और कार्यविधि को लिखा है। संयोग
से इन दोनों ही ग्रंथों के संपादन का मुझे सौभाग्य मिला है।
इन दिनों शिल्परत्नम पर काम चल रहा है। इसकी रचना 16वीं सदी की हैं। इसमें कहा गया है 1. नागर, 2. द्राविड और 3. वेसर शैलियों के मंदिर भारत में बनते आए हैं, मगर सबका अपना अपना स्वरूप रहा है। लाख प्रयासों के बावजूद शिल्पियों ने अपने ढंग से ही मंदिरों की रचना की है। मानव की तरह ही उनके रूप रंग में कुछ न कुछ भेद मिलता ही है। यही कारण है कि समरांगण सूत्रधार में मंदिरों के संबंध में जो विवरण है, उनको यदि नमूने के तौर पर भी बनाया जाए तो एक भारत कम पड़ जाए...। ऐसा ही विस्तृत विवरण ईशान शिवगुरुदेव पद्धति में मिलता है जिसके उत्तरार्ध का क्रियापाद अधिकांशत: देवालयों से संबंध रखता है।
शिल्परत्नकार श्रीकुमार का मत है कि हिमालय से लेकर विंध्याचल तक सात्विक गुणों के नागर, विंध्याचल से लेकर कृष्णा तक राजस गुणों के द्राविड और कृष्णा से लेकर कन्यान्त तक तामस गुणों वाले वेसर शैली के प्रासादों के निर्माण की परंपरा रही है -
प्रासादों के स्वरूप के निर्णय के लिए हमें हमारे शिल्प ग्रंथों को जरूर देखना चाहिए जिनमें उनके रचनाकाल से पूर्व की परंपराओं को लिखा गया है। मयमतं हो या मानसार या फिर शैवागम अथवा वैष्णवागम हों, उनमें प्रासादों की रचना के लिए पर्याप्त विवरण मिलता है। दक्षिण के नारायण नंबूदिरीपात ने 'देवालय चंद्रिका' में प्रासादों के शिल्प के लिए निर्देश किए हैं तो सूत्रधार मंडन ने 'प्रासादमण्डनम
इन दिनों शिल्परत्नम पर काम चल रहा है। इसकी रचना 16वीं सदी की हैं। इसमें कहा गया है 1. नागर, 2. द्राविड और 3. वेसर शैलियों के मंदिर भारत में बनते आए हैं, मगर सबका अपना अपना स्वरूप रहा है। लाख प्रयासों के बावजूद शिल्पियों ने अपने ढंग से ही मंदिरों की रचना की है। मानव की तरह ही उनके रूप रंग में कुछ न कुछ भेद मिलता ही है। यही कारण है कि समरांगण सूत्रधार में मंदिरों के संबंध में जो विवरण है, उनको यदि नमूने के तौर पर भी बनाया जाए तो एक भारत कम पड़ जाए...। ऐसा ही विस्तृत विवरण ईशान शिवगुरुदेव पद्धति में मिलता है जिसके उत्तरार्ध का क्रियापाद अधिकांशत: देवालयों से संबंध रखता है।
शिल्परत्नकार श्रीकुमार का मत है कि हिमालय से लेकर विंध्याचल तक सात्विक गुणों के नागर, विंध्याचल से लेकर कृष्णा तक राजस गुणों के द्राविड और कृष्णा से लेकर कन्यान्त तक तामस गुणों वाले वेसर शैली के प्रासादों के निर्माण की परंपरा रही है -
नागरं
सात्विके देशे राजसे द्राविडं भवेत्। वेसरं तामसे देशे क्रमेण
परिर्कीतिता:।।
इसी प्रकार की मान्यताएं 8वीं सदी के ग्रंथ 'लक्षण सार समुच्चय' में आई हैं...।
आज इतना ही, कभी फिर।
- डॉ: श्रीकृष्ण जुगनू
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