बारहवीं-तेरहवीं सदी तक हमारे यहां शिलालेखों, राजकीय आज्ञाओं, ताम्रानुशासनों को लिखने की एक शैली और पाठ का निर्धारण हो गया था, बिल्कुल वैसे ही जैसे आज सरकारी कामकाज में भाषा तय है। 'लेखपद्धति' नामक मध्यकालीन संग्रह ग्रंथ में ऐसे अभिलेखों के पाठ का दस्तावेजी संग्रह है जो शिलालेखों पर उत्कीर्ण किया जा चुका था या लिपिकार उनको अपना चुके थे। ऐसा ही एक शिलालेख गुजरात के Kutch Itihas Parisad की ओर से मिला है। जिज्ञासा है कि इसके पाठ को पढा जाए। इसका मूल पाठ मेरे पठन के अनुसार इस तरह होगा-
* ज् संवत् 1328 वर्षे श्रावण सुदि 2 शुक्रे (शुक्रवारे) अधेह श्रीमद
णहिल्लपाटका वेष्टित समस्त रा-
जावली समलंकृत महाराजाधिराज श्री
मदर्ज्जुनदेव कल्याण विजय
राज्ये तन्नियुक्त महामात्य श्रीमालदेवे श्रीश्रीकरणांदि
द्रा व्यापारान् परिपंथयति सतीत्युव काले प्रवर्तमाने श्रीघतघद्या
मंडलकरण प्रतिवर्ष्ष एव ग्रामे देवी श्रीराववी पादानां पुरतो
घांघणीया ज्जातीय बार बरीया सुत रवि सींहेन आत्म श्रेयार्थ वापी कारापिता।
कारापान 1600 शुभं भवतु।*
लेख पद्धति के अनुसार यह अभिलेख उस काल के व्यापारियों के संबंध में राजाज्ञा का सूचक होता है, ऐसे ही दो अभिलेख दरीबा-मेवाड़ की विश्व प्रसिद्ध खदान के पास सूरजबारी माता मंदिर से मिले हैं। दोनों ही पिता-पुत्र महाराजाओं के हैं, महारावल समरसिंह और रत्नसिंह (रानी पदि़मनी के पति) के हैं। सन् 1298 व 1302 के। भाषा और लिपि ही नहीं, पाठ भी लगभग समान है। संयोग ही है कि गुजरात के श्रावण शुक्ला द्वितीया, 1272 ई. के इस अभिलेख में भी देवी मंदिर के पास वापी या बावड़ी के निर्माण का जिक्र है। इसको अपने ही श्रेय के लिए रवि सिंह ने बनवाया था। यह निर्माण अनहिलवाड पाटन के शासक, समस्त राजावलि में विभूषित अर्जुनदेव के कल्याणकारी राज्यकाल में हुआ था।
विश्लेषक-डॉ. श्रीकृष्ण 'जुगनू'
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