होली के दिनों में पहले बच्चों को
चेचक हुआ करती थी। अब तो चेचक का उन्मूलन हो गया मगर खसरा के नाम से कहीं
कहीं आज भी ऐसा सुना जाता है। बहुत भंयकर व्याधि थी। आंखे चली जाती, चेहरे
विभत्स हो जाते। लोग आज तो वह कहावत भूल गए हैं जबकि कहते थे - है तो वह
चांद का टुकडा, मगर चांद के साथ तारे हैं। यानी मुंह पर चेचक के वण है।
चेचक को ही पूतना कहा गया है। मगर, हम यही जानते हैं कि कंस के राज में भगवान् कृष्ण को मारने के लिए पूतना पठाई गई थी और उसने जब दूध पिलाया तो कृष्ण ने उसका वध कर डाला.... इस कहानी को कितना रस ले लेकर सुनाया जाता है, कोई ये नहीं कहता कि कृष्ण ने इस बीमारी के उन्मूलन का प्रयास किया। हरिवंश, विष्णुपुराण आदि के आधार पर यही वर्णन भागवत में भी लिया गया है। आश्चर्य है कि यह एकमात्र बीमारी है जो कृष्ण को हुई थी, मगर उस पर उन्होंने विजय पा ली थी। इसको बीमारी के रूप में लिखा ही नहीं गया
शायद यह पहला संदर्भ है जबकि चेचक के उन्मूलन का प्रयास हुआ हो, मगर इससे पहले रावण के राज में भी पूतना का प्रकोप था। रावण के नाम से जो आयुर्वेदिक ग्रंथ मिलते हैं, उनमें पूतना के प्रकाेप पर शमन के उपाय लिखे गए हैं। यानी रावण के राज में इस बीमारी के शमन पर पूरा जोर दिया जाता था ताकि बच्चे स्वस्थ, मस्त और प्रशस्त रहें तो देश का भविष्य ठीक रहेगा। आयुर्वेद के कोई भी प्राचीन ग्रंथ उठाइये, पूतना के उपाय लिखे मिल जाएंगे।
कई नामों और भेदों वाली होती थी पूतना। दो चार नाम तो मुझे भी याद आ रहे हैं जिनको हम बचपन में पहचाना करते थे - बडी माता, छोटी माता, बोदरी माता, सौकमाता, अवणमाता, झरणमाता, मोतीरा वगैरह। इन सब को लक्षणों के अनुसार पहचाना जाता था।
वास्तु के लिए 81 या 64 पद का आधार तैयार होता है, उसमें पिलीपिच्छा, चरकी, अर्यमा, पापाराक्षसी, विदारिका, स्कंद, जृम्भा और पूतना को गृहयोजना के बाहर ही रखकर पूजन किया जाता है। सभी वास्तु ग्रंथों में उसका जिक्र आया है, वास्तु पद न्यास में उसको भूलाया नहीं जाता ताकि घर में रहने वालों को कभी ये बीमारी नहीं हो। इसको लाल रंग के भात से पूजा करके मनाया जाता है, क्यों, इसलिए कि उसके प्रकोप के दौरान लाल चावल ही कभी खाए जाते थे। वे सब बातें हम सब भूल गए।
रही बात पूतना की, वह हमें सिर्फ इसलिए याद है कि उसको कृष्ण ने मारा था। केवल एक कहानी की शक्ल में। और, उसकी तस्वीरें, मूर्तियां, चित्र आदि भी इस प्रसंग को जीवंत बनाए रखते हैं। रावणसंहिता के बाल औषधि विधान में एक प्रसंग में मंदोदरी ने रावण से कहा था कि ये मातृकाएं बालकों को अपनी चपेट में ले लेती है। नन्दना, सुनन्दा कंटपूतना, शकुनिका पूतना, अर्यका, भूसूतिका पूतना, शुष्करेवती वगैरहा। रावण ने तब कहा - तृतीय दिवसे मासे वर्षे वा गृह़णाति पूतना नाम मातृका तया गृहीतमात्रेण प्रथमं भवति ज्वर:। गात्रमुद्वेजयत ि स्तन्यं ऊर्ध्वं निरीक्षते।
चेचक को ही पूतना कहा गया है। मगर, हम यही जानते हैं कि कंस के राज में भगवान् कृष्ण को मारने के लिए पूतना पठाई गई थी और उसने जब दूध पिलाया तो कृष्ण ने उसका वध कर डाला.... इस कहानी को कितना रस ले लेकर सुनाया जाता है, कोई ये नहीं कहता कि कृष्ण ने इस बीमारी के उन्मूलन का प्रयास किया। हरिवंश, विष्णुपुराण आदि के आधार पर यही वर्णन भागवत में भी लिया गया है। आश्चर्य है कि यह एकमात्र बीमारी है जो कृष्ण को हुई थी, मगर उस पर उन्होंने विजय पा ली थी। इसको बीमारी के रूप में लिखा ही नहीं गया
शायद यह पहला संदर्भ है जबकि चेचक के उन्मूलन का प्रयास हुआ हो, मगर इससे पहले रावण के राज में भी पूतना का प्रकोप था। रावण के नाम से जो आयुर्वेदिक ग्रंथ मिलते हैं, उनमें पूतना के प्रकाेप पर शमन के उपाय लिखे गए हैं। यानी रावण के राज में इस बीमारी के शमन पर पूरा जोर दिया जाता था ताकि बच्चे स्वस्थ, मस्त और प्रशस्त रहें तो देश का भविष्य ठीक रहेगा। आयुर्वेद के कोई भी प्राचीन ग्रंथ उठाइये, पूतना के उपाय लिखे मिल जाएंगे।
कई नामों और भेदों वाली होती थी पूतना। दो चार नाम तो मुझे भी याद आ रहे हैं जिनको हम बचपन में पहचाना करते थे - बडी माता, छोटी माता, बोदरी माता, सौकमाता, अवणमाता, झरणमाता, मोतीरा वगैरह। इन सब को लक्षणों के अनुसार पहचाना जाता था।
वास्तु के लिए 81 या 64 पद का आधार तैयार होता है, उसमें पिलीपिच्छा, चरकी, अर्यमा, पापाराक्षसी, विदारिका, स्कंद, जृम्भा और पूतना को गृहयोजना के बाहर ही रखकर पूजन किया जाता है। सभी वास्तु ग्रंथों में उसका जिक्र आया है, वास्तु पद न्यास में उसको भूलाया नहीं जाता ताकि घर में रहने वालों को कभी ये बीमारी नहीं हो। इसको लाल रंग के भात से पूजा करके मनाया जाता है, क्यों, इसलिए कि उसके प्रकोप के दौरान लाल चावल ही कभी खाए जाते थे। वे सब बातें हम सब भूल गए।
रही बात पूतना की, वह हमें सिर्फ इसलिए याद है कि उसको कृष्ण ने मारा था। केवल एक कहानी की शक्ल में। और, उसकी तस्वीरें, मूर्तियां, चित्र आदि भी इस प्रसंग को जीवंत बनाए रखते हैं। रावणसंहिता के बाल औषधि विधान में एक प्रसंग में मंदोदरी ने रावण से कहा था कि ये मातृकाएं बालकों को अपनी चपेट में ले लेती है। नन्दना, सुनन्दा कंटपूतना, शकुनिका पूतना, अर्यका, भूसूतिका पूतना, शुष्करेवती वगैरहा। रावण ने तब कहा - तृतीय दिवसे मासे वर्षे वा गृह़णाति पूतना नाम मातृका तया गृहीतमात्रेण प्रथमं भवति ज्वर:। गात्रमुद्वेजयत
एक व्याधि,, जो कहानी के रूप में हमारे बीच रही है,,
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