आबू के पास इन दिनों जिस चंद्रावती नगरी
की खुदाई हो रही है, उसको आखिर गुरुवार को देख ही लिया। सूर्योदय चंद्रावती
में हुआ और पांव सीधे ही उसी पुरास्थली में थे जिसको परमारों ने अपने
प्रयासों से वैभव का परम दिया। दक्षिण की ओर बहने वाली नदीं, करीब दो सौ
बीघा भूमि, आज उस पर बबूल और अन्य पेड़-पौधों का साम्राज्य है मगर सच ये
है कि उन कांटों ने अपने अंक में एक बेशकीमती विरासत को अक्षुण्ण रखने
में बड़ा योगदान किया है।
बहुत नियोजित रूप से चंद्रावती नगर का न्यास हुआ है। अब तक इस नगरी में 33 मंदिरों की जगतियों को खोजा गया है जबकि किलों के रूप में तीन राजमहलों को न केवल चिन्हित किया गया बल्कि मिट्टी की परतों को हटाकर उनके लिए प्रयोग में लाई गई ईंटों और उनके जमाव की तकनीक को रेखांकित, चित्रित करने का अपूर्व प्रयास हो रहा है। इन नगरी की एक खासियत यह रही है कि इसमें र्इंटों का सर्वाधिक प्रयोग किया गया और न केवल दीवारों के लिए बल्कि फर्श के लिए भी 28 गुणा 28 की ईंटों को बिछाया गया है।
राजमहलों की दीवारों की रचना में भी ईंटों को ही ऊर्ध्वाधर इस रूप में संयोजित किया गया है कि नीचे का भाग चौड़ा दीखे और ऊपर की ओर न्यून होता जाए। इसमें चारों ही ओर बुर्जियों की जो रचना की गई है, उनमें छत के जल को स्वभावत: नीचे उतारने व दीवारों को बचाने के लिए 'सलिलान्तर' या 'वार्यान्तर' का प्रयोग किया है। सलिलान्तर और वार्यान्तर वे शब्द हैं जिनका प्रयोग परमार राजा भोज ने अपने 'समरांगण सूत्रधार' में एकाधिक स्थलों पर किया है, तब मैं इसका आशय नहीं समझ पाया, आज पहली बार इसको प्रयोग सहित देखकर अर्थ समझ में आया तो मैं मुआयने के दौरान तत्काल बोल पड़ा था। वहां परेड को देखने के लिए 'खलूरिका' की रचना भी हुई है। यह शब्द मयमतं और मानसार में आया है। सच में एक शिल्प के अध्येता के लिए तत्कालीन नगर को देखना रोचक और रोमांचक था। मैंने कहा कि वे तत्कालीन शिल्प ग्रंथों के सहयोग से इस नगर के नियोजन विधान का परीक्षण करने का जरूर प्रयास करें...।
हां, र्इंटों का प्रयोग देखकर तो मुझे समरांगण सूत्रधार के वे सारे संदर्भ स्मरण हो गए जो ईंटोंं की रचना को लेकर हैं। उसकाल में ईंटों का इतना प्रयोग देखकर लगा कि वहां जरूर कोई बड़ी कुम्हारों की बस्ती रही होंगी जिन्होंने अलग-अलग प्रकार की ईंटों, मृल्लोष्ट को तैयार करने में पूरे परिवार की ताकत झोंक दी होंगी। हां, वहां से कालांतर में पलायन करने वाले कुम्हारों की गोत्रीय-अटकों में चंद्रावती या आबू का असर जरूर मौजूद होगा। कई संदर्भ मेरे मन में हैं, और कई संदर्भ खोजने हैं। ऐसे ही संदर्भों का अध्ययन वहां पर पूना की शाहीदाजी कर रही हैं जबकि अनिलजी पोखरिया अनाज के दानों को खोज रहे हैं। और इन सभी का नेतृत्व कर रहे हैं युवा पुराविद्, मित्रवर प्रो. जीवनसिंह खरकवाल। उनके जुनून, जिद और जज्बे को सलाम, उनके अतिशय आग्रह का अनेक अनेक आभार और उनके साथ भ्रमण और सहयोग-सौजन्य के प्रति साधुवाद...।
बहुत नियोजित रूप से चंद्रावती नगर का न्यास हुआ है। अब तक इस नगरी में 33 मंदिरों की जगतियों को खोजा गया है जबकि किलों के रूप में तीन राजमहलों को न केवल चिन्हित किया गया बल्कि मिट्टी की परतों को हटाकर उनके लिए प्रयोग में लाई गई ईंटों और उनके जमाव की तकनीक को रेखांकित, चित्रित करने का अपूर्व प्रयास हो रहा है। इन नगरी की एक खासियत यह रही है कि इसमें र्इंटों का सर्वाधिक प्रयोग किया गया और न केवल दीवारों के लिए बल्कि फर्श के लिए भी 28 गुणा 28 की ईंटों को बिछाया गया है।
राजमहलों की दीवारों की रचना में भी ईंटों को ही ऊर्ध्वाधर इस रूप में संयोजित किया गया है कि नीचे का भाग चौड़ा दीखे और ऊपर की ओर न्यून होता जाए। इसमें चारों ही ओर बुर्जियों की जो रचना की गई है, उनमें छत के जल को स्वभावत: नीचे उतारने व दीवारों को बचाने के लिए 'सलिलान्तर' या 'वार्यान्तर' का प्रयोग किया है। सलिलान्तर और वार्यान्तर वे शब्द हैं जिनका प्रयोग परमार राजा भोज ने अपने 'समरांगण सूत्रधार' में एकाधिक स्थलों पर किया है, तब मैं इसका आशय नहीं समझ पाया, आज पहली बार इसको प्रयोग सहित देखकर अर्थ समझ में आया तो मैं मुआयने के दौरान तत्काल बोल पड़ा था। वहां परेड को देखने के लिए 'खलूरिका' की रचना भी हुई है। यह शब्द मयमतं और मानसार में आया है। सच में एक शिल्प के अध्येता के लिए तत्कालीन नगर को देखना रोचक और रोमांचक था। मैंने कहा कि वे तत्कालीन शिल्प ग्रंथों के सहयोग से इस नगर के नियोजन विधान का परीक्षण करने का जरूर प्रयास करें...।
हां, र्इंटों का प्रयोग देखकर तो मुझे समरांगण सूत्रधार के वे सारे संदर्भ स्मरण हो गए जो ईंटोंं की रचना को लेकर हैं। उसकाल में ईंटों का इतना प्रयोग देखकर लगा कि वहां जरूर कोई बड़ी कुम्हारों की बस्ती रही होंगी जिन्होंने अलग-अलग प्रकार की ईंटों, मृल्लोष्ट को तैयार करने में पूरे परिवार की ताकत झोंक दी होंगी। हां, वहां से कालांतर में पलायन करने वाले कुम्हारों की गोत्रीय-अटकों में चंद्रावती या आबू का असर जरूर मौजूद होगा। कई संदर्भ मेरे मन में हैं, और कई संदर्भ खोजने हैं। ऐसे ही संदर्भों का अध्ययन वहां पर पूना की शाहीदाजी कर रही हैं जबकि अनिलजी पोखरिया अनाज के दानों को खोज रहे हैं। और इन सभी का नेतृत्व कर रहे हैं युवा पुराविद्, मित्रवर प्रो. जीवनसिंह खरकवाल। उनके जुनून, जिद और जज्बे को सलाम, उनके अतिशय आग्रह का अनेक अनेक आभार और उनके साथ भ्रमण और सहयोग-सौजन्य के प्रति साधुवाद...।
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