लोहस्तंभ को देखकर किसे
आश्चर्य नहीं होता। यह किस धातु का बना कि आज तक उस पर जंग नहीं लगा। ऐसी
तकनीक गुप्तकाल के आसपास भारत के पास थी। हां, उस काल तक धातुओं का
सम्मिश्रण करके अद्भुत वस्तुएं तैयार की जाती थी। ऐसे मिश्रण का उपयोग
वस्तुओं को संयोजित करने के लिए भी किया जाता था। यह मिश्रण '' वज्रसंघात
'' कहा जाता था।
शिल्पियों की जो शाखा मय नामक शिल्पिवर के मत स्वीकारती थी, इस प्रकार का वज्र संघात तैयार करती थी। उस काल में मय का जाे ग्रंथ मौजूद था, उसमें इस प्रकार की कतिपय विधियों की जानकारी थी, हालांकि आज मय के नाम से जो ग्रंथ हैं, उनमें शिल्प में मन्दिर और मूर्ति बनाने की विधियां अध्ािक है, मगर 580 ई. के आसपास वराहमिहिर को मय का उक्त ग्रंथ प्राप्त था। वराहमिहिर ने मय के मत को उद्धृत करते हुए वज्रसंघात तैयार करने की विधि को लिखा है-
अष्टौ सीसकभागा: कांसस्य द्वौ तु रीतिकाभाग:।
मय कथितो योगोsयं विज्ञेयाे वज्रसंघात:।। (बृहत्संहिता 57, 8)
मय ने 8 : 2 :1: अनुपात में क्रमश: सीसा, कांसा और पीतल को गलाने का नियम दिया था, इससे जो मिश्रण बनता था, वह वज्रसंघात कहा जाता था। यह कभी नहीं हिलता था और वज्र की तरह चिपकाने के काम आता था। वराहमिहिर के इस संकेत के आधार पर 9वीं सदी में कश्मीर के पंडित उत्पल भट ने खाेजबीन की और मय का वह ग्रंथ खोज निकाला था। उसी में से मय का वह श्लोक वराहमिहिर की टीका के साथ लिखा था-
संगृह्याष्टौ सीसभागान् कांसस्य द्वौ तथाशंकम्।
रीतिकायास्तु संतप्तो वज्राख्य: परिकीर्तित:।।
आज वह ग्रंथ हमारे पास नहीं। मगर, इस श्लोक में कहा गया है कि इस मिश्रण के लिए सभी धातुओं को मिलाकर तपाया जाता था। इसके लिए उचित तापमान के संबंध में जरूर शिल्पियों को जानकारी रही होंगी, वे उन मूषाओं के बारे में भी जानते रहे होंगे, जो काम आती थीं। मगर, क्या हमारे पास इस संबंध में कोई जानकारी है,,, बस यही तो समस्या है।
शिल्पियों की जो शाखा मय नामक शिल्पिवर के मत स्वीकारती थी, इस प्रकार का वज्र संघात तैयार करती थी। उस काल में मय का जाे ग्रंथ मौजूद था, उसमें इस प्रकार की कतिपय विधियों की जानकारी थी, हालांकि आज मय के नाम से जो ग्रंथ हैं, उनमें शिल्प में मन्दिर और मूर्ति बनाने की विधियां अध्ािक है, मगर 580 ई. के आसपास वराहमिहिर को मय का उक्त ग्रंथ प्राप्त था। वराहमिहिर ने मय के मत को उद्धृत करते हुए वज्रसंघात तैयार करने की विधि को लिखा है-
अष्टौ सीसकभागा: कांसस्य द्वौ तु रीतिकाभाग:।
मय कथितो योगोsयं विज्ञेयाे वज्रसंघात:।। (बृहत्संहिता 57, 8)
मय ने 8 : 2 :1: अनुपात में क्रमश: सीसा, कांसा और पीतल को गलाने का नियम दिया था, इससे जो मिश्रण बनता था, वह वज्रसंघात कहा जाता था। यह कभी नहीं हिलता था और वज्र की तरह चिपकाने के काम आता था। वराहमिहिर के इस संकेत के आधार पर 9वीं सदी में कश्मीर के पंडित उत्पल भट ने खाेजबीन की और मय का वह ग्रंथ खोज निकाला था। उसी में से मय का वह श्लोक वराहमिहिर की टीका के साथ लिखा था-
संगृह्याष्टौ सीसभागान् कांसस्य द्वौ तथाशंकम्।
रीतिकायास्तु संतप्तो वज्राख्य: परिकीर्तित:।।
आज वह ग्रंथ हमारे पास नहीं। मगर, इस श्लोक में कहा गया है कि इस मिश्रण के लिए सभी धातुओं को मिलाकर तपाया जाता था। इसके लिए उचित तापमान के संबंध में जरूर शिल्पियों को जानकारी रही होंगी, वे उन मूषाओं के बारे में भी जानते रहे होंगे, जो काम आती थीं। मगर, क्या हमारे पास इस संबंध में कोई जानकारी है,,, बस यही तो समस्या है।
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