शिव और उनके शैवधर्म ने शासकों के शासन संचालन में बड़ा सहयोग किया है। राजस्थान में अनेक राजवंश शैव रहे हैं और शैव मान्यताओं के अनुसार ही उन्होंने अनेक आदर्श स्थापित किए।
इनमें मेवाड़ ने तो शिव के एकलिंग स्वरूप को ही अपना राजा और महाराणाओं ने स्वयं को उनके दीवान के रूप में रेखांकित किया है। विश्व में यह अनोखा ही उदाहरण है कि जहां शासक के रूप में परमेश्वर को माना गया जबकि गीता सहित मनु, बार्हस्पत्य आदि नीतिशास्त्रों ने राजा में सर्वेश्वर को देखने का निर्देश किया है।
एकलिंगजी का मंदिर उदयपुर जिले में मुख्यालय से अठारह किलोमीटर उत्तर में कैलाशपुरी नामक गांव में है। कभी यहां का नागदा नामक नगर अपने विकास के चरम पर था और वहां परमारों से लेकर गुहिल शासकों तक ने देवालयों का निर्माण करवाकर एक राजधानी का विकास किया किंतु 12वीं सदी में सुल्तान अल्तमिश के हमले में उस नगर को जला दिया गया।
एकलिंगजी एक नहीं, अनेक मंदिरों के समूह के रूप में ख्यात है। यहां मूलत: पाशुपत संप्रदाय का मंदिर रहा है जिसका शिलालेख 917 ई. का मिलता है किंतु महाराणा मोकल, कुंभा और रायमल के शासनकाल में जिस भव्य मंदिर का विकास हुआ, उसे एकलिंग मंदिर के रूप में ख्याति लब्ध है। कलिंग की तरह एकलिंग का विकास इस मान्यता के आधार पर हुआ कि जहां पांच पांच कोस तक मात्र एक ही लिंग विद्यमान हो -
पंचक्रोशान्तरे यत्र न लिंगान्तरमीक्षते।
तदेकलिंग माख्यातं तत्र सिद्धिरनुत्तमा।
पंचमुखी स्वरूप व माहात्म्य-
मुखलिंग के रूप में है एकलिंगजी का स्वरूप-
एकलिंगजी का स्वरूप मुखलिंग के रूप में है। चारों ही दिशाओं में ईशानादि स्वरूप और शीर्ष पर सूर्य के स्वरूप को मानकर यहां कभी तांत्रिक विधि से पूजा की जाती थी किंतु बाद में इस मंदिर की अपनी विशेष पूजा पद्धति का विकास हुआ।
महिमा में स्वतंत्र पुराण रचा गया-
यह ऐसा शिव मंदिर है कि जिसकी महिमा में स्वतंत्र पुराण की रचना की गई है। 'एकलिंगपुराण' के नाम से रचित इस पुराण को वायुपुराण से संबद्ध माना गया है। इसमें एकलिंगजी के प्रादुर्भाव, कुटिला नदी, करज कुंड, भैरों बावड़ी, इंद्र सरोवर, धारेश्वर तीर्थ, विंन्ध्यवासिनी, राष्ट्रश्येना आदि स्थलों का महत्व आया है। तिथियों के अनुसार यहां होने वाली पूजा परंपरा और यात्राओं का विवरण विस्तार से लिखा गया है। महाराणा कुंभा के शासनकाल में इस पुराण की रचना प्रारंभ हुई किंतु इसकी पूर्णता महाराणा रायमल के शासनकाल में 1497 ई. के आसपास हुई। इसमें शिव के मेवाड में एकलिंग के रूप में प्रादुर्भूत होने का प्रसंग आया है -
भूमिं भित्वाथ तत्रापि पातालं
तदगमिष्यति।
मेदपाटे पुनर्धेन्वा स्मृतं प्रादुर्भविष्यति।
पाषाणत्व
सुरा यान्तु लिंगस्यास्य समीपत:।
(एकलिंगपुराण 5, 5-6)
स्वदेशी भाषा के निर्देशक शिव -
यहां की दक्षिण द्वार की 1495 ई. की प्रशस्ति में महाराणा हमीर से लेकर रायमल तक किए गए दान, सतकार्यों का विवरण मिलता है। यह प्रशस्ति भारतीय शिलालेखों में इसलिए रेखांकित की जा सकती है कि इस प्रशस्ति में पहली बार स्थानीय भाषा को महत्व दिया गया है। कहा गया है कि शिवसूत्रों से निष्पन्न नियमों वाली संस्कृत को काेई कोई विचक्षण ही जान सकता है किंतु जन सामान्य के लिए स्वदेशभाषा में अनुवाद होना चाहिए, यह शिवाज्ञा है। इसके बाद 100 श्लोकों का सार तत्कालीन राजस्थानी भाषा में लिखकर उत्कीर्ण किया गया है।
शिवधर्म की यह मान्यता रही है कि संस्कृत और प्राकृत सहित स्थानीय भाषा को महत्व मिले, यहां का शिलालेख इस मत की पुष्टि करता है। यही नहीं, एकलिंगजी के आराधक बावजी चतुरसिंह आदि ने स्थानीय भाषा में ही ही शिवस्तुतियों की रचना या अनुवाद का कार्य किया -
दासपालक पूजनीक अखण्डनिध दिग्वस्त्र है,
नाथ सबरो परे सबशूं जो अचिंत अनूप है,
चाँद जलधर सूर्य अग्नी पवन आप आकाश है,
चंद्रधारक आशारे म्हूं काल म्हारो कई करे।।
मेलों की महिमा -
शिवरात्रि पर लगता है मेला-
यूं तो एकलिंगजी में नित्य उत्सव रहता है किंतु गुरुपूर्णिमा यहां का सांस्कृतिक पर्व है तो शिवरात्रि पर मेला लगता है। पैदल यात्रियों की सर्वाधिक पहुंच हाेती है और रात में चारों ही प्रहर पूजा होती है। यह मान्यता है कि किसी भी मास के कृष्णपक्ष की चतुर्दशी शिवरात्रि कही जाती है, किन्तु कालमाधव के अनुसार माघ (फाल्गुन, पूर्णिमान्त) की चतुर्दशी महत्वपूर्ण है और महाशिवरात्रि कहलाती है।
शिवपुराण, लिंगपुराण में शिवरात्रि की व्रतकथा आती है। गरुडपुराण
(1/124) , स्कन्दपुराण (1/1/32), पद्मपुराण (6/240) और अग्निपुराण (अध्याय
193) आदि में इस तिथि का वर्णन मिलता है। विशेषता यह है कि जो कोई
श्रद्धापूर्वक इस दिन उपवास करके बिल्व-पत्तियों से शिव की पूजा करता है और
रात्रि जागरण करता है, शिव उसे आनन्द एवं मोक्ष प्रदान करते हैं और
व्यक्ति स्वयं शिव स्वरूप हो जाता है -
स्वयम्भूलिंगमभ्यर्च्य सोपवास: सजागर: ||
महाभारत का मत है -आद्यं
पुरुषमीशानं पुरुहूतं पुरुष्टुतम् |
ऋतमेकाक्षरं ब्रह्म व्यक्ताव्यक्तं
सनातनम् ||
असच्च सदसच्चैव यद् विश्वं सदसत्परम् |
परावराणां स्रष्टारं
पुराणं परमव्ययम् ||
महाभारत आदिपर्व 1/22-23
जय जय एकलिंगनाथ जी...
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