होली के दूसरे रोज, चैत्र
कृष्णा द्वितीया को मेवाड़ में जंवरा बीज के रूप में मनाया जाता है। यहां
दूज को बीज कहना इसलिए उचित है कि दाल जैसे बीज में दो भाग ही होते हैं अत:
बीज 2 के अर्थ में हैं। वैसे दूज को गुजरात में भी बीज ही कहा जाता है,
दूसरे को बीजा के रूप में पुकारा जाता है।
जंवरा बीज इसलिए कि इस दिन का संबंध जंवर, जम्मर या जौहर जैसी परंपरा से रहा है। बात चित्तौड़ की है...किंतु प्रसंग ये है कि इस दिन होली के काष्ठ का वह खंड जो भूमि में बिना जले रह गया, उसको रात को महिलाओं द्वारा खोदकर निकाला जाता है। बिना जले काष्ठ को खोदकर निकालने की यह परंपरा मिस्र की पुरानी परंपराओं से बड़ी समानता लिए है जबकि महिलाएं कृषि की खोज और जल गए पेड़-पौधों वाली भूमि पर चूल्हों के लिए इंधन की तलाश करती थीं और उसको निकालने, उस पर स्वत्व दर्शाने में मनसा वाचा कर्मणा ताकत झोंक देती थी...।
यूं तो यह सामान्य बात है मगर खास बात ये कि महिलाएं समूह में यह कार्य करती हैं। बहुत ही नोक-झोंक, चुहलबाजी के बीच यह रस्म होती है। एकदम बेखौफ, उन्मुक्त होकर, पर्दे वाली औरतें भी उगाड़ी बातें कहने से परहेज नहीं करती, एक अजूबी आजादी... इसके गीत कम नहीं और गालियां भी कमतर नहीं.. सुनकर देखें कि कान के पर्दों से जेहन में जमीं कर जाए... इसे 'जंवरा खांडना' कही जाती है। मर्द या मर्द का जाया वहां नहीं जा सकता। उन लोगों के संस्मरण भी मुझे याद आते हैं जिन्हें भूलवश वहां से गुजर जाने पर नारी-दरबार में कोपभाजन बनना पड़ा और लहंगे के नीचे से तक गुजरना पड़ा, लहंगे के लोर तक सलाम ठोकना पड़ा...
हां, इस पर्व पर पर्याप्त व्यंजन बनाए जाते हैं। देशज व्यंजन : खाजा, पापड़ी, पापड़, भुजिया, गुलगुले, साकरपारे, सुहालिया... वाह। सभी देशी, स्वाद भी अपना। ये अगले दस दिन तक चलते हैं। न्यौतों के दौर चलते रहते हैं। इसी मौके से गेर नर्तन का आगाज होता है, इनमें मेनार गांव का गेर नर्तन तो लाठियों के साथ-साथ तलवारों के प्रयोग के कारण दर्शनीय होता है। वल्लभनगर में वृहन्नलाओं की बरात ईलोजी के द्वार से चढ़ती है और काचे-कुंवारों के ब्याह की कामना होती है...।
वाह, क्या नहीं होता... है न रोचक जंवरा बीज। स्त्री समाज के स्वातंत्र्य, सुहालिकाओं के स्वाद का सुख्यात अवसर। कोई पुराणकार होता तो लिख ही देता :
जंवरा बीज इसलिए कि इस दिन का संबंध जंवर, जम्मर या जौहर जैसी परंपरा से रहा है। बात चित्तौड़ की है...किंतु प्रसंग ये है कि इस दिन होली के काष्ठ का वह खंड जो भूमि में बिना जले रह गया, उसको रात को महिलाओं द्वारा खोदकर निकाला जाता है। बिना जले काष्ठ को खोदकर निकालने की यह परंपरा मिस्र की पुरानी परंपराओं से बड़ी समानता लिए है जबकि महिलाएं कृषि की खोज और जल गए पेड़-पौधों वाली भूमि पर चूल्हों के लिए इंधन की तलाश करती थीं और उसको निकालने, उस पर स्वत्व दर्शाने में मनसा वाचा कर्मणा ताकत झोंक देती थी...।
यूं तो यह सामान्य बात है मगर खास बात ये कि महिलाएं समूह में यह कार्य करती हैं। बहुत ही नोक-झोंक, चुहलबाजी के बीच यह रस्म होती है। एकदम बेखौफ, उन्मुक्त होकर, पर्दे वाली औरतें भी उगाड़ी बातें कहने से परहेज नहीं करती, एक अजूबी आजादी... इसके गीत कम नहीं और गालियां भी कमतर नहीं.. सुनकर देखें कि कान के पर्दों से जेहन में जमीं कर जाए... इसे 'जंवरा खांडना' कही जाती है। मर्द या मर्द का जाया वहां नहीं जा सकता। उन लोगों के संस्मरण भी मुझे याद आते हैं जिन्हें भूलवश वहां से गुजर जाने पर नारी-दरबार में कोपभाजन बनना पड़ा और लहंगे के नीचे से तक गुजरना पड़ा, लहंगे के लोर तक सलाम ठोकना पड़ा...
हां, इस पर्व पर पर्याप्त व्यंजन बनाए जाते हैं। देशज व्यंजन : खाजा, पापड़ी, पापड़, भुजिया, गुलगुले, साकरपारे, सुहालिया... वाह। सभी देशी, स्वाद भी अपना। ये अगले दस दिन तक चलते हैं। न्यौतों के दौर चलते रहते हैं। इसी मौके से गेर नर्तन का आगाज होता है, इनमें मेनार गांव का गेर नर्तन तो लाठियों के साथ-साथ तलवारों के प्रयोग के कारण दर्शनीय होता है। वल्लभनगर में वृहन्नलाओं की बरात ईलोजी के द्वार से चढ़ती है और काचे-कुंवारों के ब्याह की कामना होती है...।
वाह, क्या नहीं होता... है न रोचक जंवरा बीज। स्त्री समाज के स्वातंत्र्य, सुहालिकाओं के स्वाद का सुख्यात अवसर। कोई पुराणकार होता तो लिख ही देता :
चैत्रमासे कृष्णपक्षे द्वितीये दिवसे तथा। जंवराबीजाख्य पर्वेति योषां
चोल्लासपूर्वकम ्।।
शेषं होलीदण्डं कर्षणमश्लीलक्र ीडाsभवत्। उन्मुक्त भावेपि नर्तनं च नाना रूपेण व्यवहारम्।।
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