टोपी - कितनी पुरानी
लीजिये, इन दिनों हम सर्दी से बचाव को टोपी
जरूर पहन रहे हैं। मुहावरों में तो टोपी पहनना और टाेपी पहनाना, इसकी टोपी
उसके सिर, टोपी कुतर देना... इन से सब कोई परिचित है। भारत टोपियों से बहुत
पुराने काल से परिचित रहा है। कपड़े, ऊन, दुकूल आदि की टोपियां बनती आर्इं
हैं मगर वृक्षों के पत्तों की टोपियां भी पत्रपुट के नाम से चलन में रही,
हालांकि उनका उपयोग दोने के रूप में अधिक हुआ।
क्षेमेंद्र ने
वेशभूषाओं के जो चित्र अपने ग्रंथों में दिए हैं, उनमें तत्कालीन शब्दों
का अच्छा प्रयोग किया है। जब मोजे चलन में आ गए थे, मोचोट शब्द का प्रयोग
यही बताता है। यह फारसी के मुज़ा शब्द के निकट है। इन शब्दों में में
टोपी के लिए भी शब्दों का व्यवहार हुआ है, भाषा का वेशभाषा के अनुसार
प्रयाेग उनकी अपनी विशेषता है -
टुप्पिका - टोपी
कनटोप - घोघी
शिर:शांटक -पाग जैसी टोपी या सफेद पगड़ी
सुसूक्ष्म दल विन्यास विभागोन्नत टुप्पिकम् - नमदा अथवा पट्टू की लघु कतरनों से बनी हुई टोपी जो किनारों पर उठी हुई होती थी
उन्नत शिखर वेष्टन - सिर को बांधने वाली पाग या लपेटी गई टोपी
शिरोशुक : घूंघट या मुख को ढंकने वाली टोपी जैसी रचना।
शिवधर्मपुराण जिसकी रचना हर्षवर्धन-बाणभट्ट
के काल के आसपास हो चुकी थी में शिव को टोप भेंट करने का संदर्भ आया है।
प्राचीन काल में शिवालयों में शरदका में टोपी दान करने के अनुष्ठान होते
थे। दानखंडों में आए दानकृत्यों में टोपी दान करने के पुण्य भी लिखे गए
हैं।
है न ये सब रोचक शब्द, हमारे लिए कुछ तो परिचित हैं और कुछ
अपरिचित। मगर, इनमें से कुछ का आशय हम अपनी सुविधा के अनुसार करते आए हैं।
शिव के लिंग पर टोप को धारण करवाया जाता रहा है। (यह चित्र प्रकाश मांजरेकर
का उपहार है)
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