धारा के परमार
नरेश राजा भोज अपने साहित्यिक अवदान के लिए मशहूर हैं। उनके नामों की
उपाधियां चौरासी, दरबार में विद्वान चौरासी, उनकी लिखी किताबें चौरासी,,,
उनकी उम्र चौरासी थी या नहीं, यह तो मालूम नहीं, मगर चित्तौड़गढ़ में
कुमारकाल बिताने के बाद 1010 से 1050 ई. तक भोजराज ने राज्य किया और अपने
समय के श्रेष्ठ सर्जकों को अपने राजदरबार में आश्रय दिया। स्वयं ने भी
कृपाण ही नहीं, कलम उठाई और कई ग्रंथ लिखे, उनका लिखा एक ग्रंथ
'शालिहोत्रम्' है।
शालिहोत्र अश्व का पर्याय है और युद्धोपयोगी इस पशु ने मानव की जो सहायता की, वह रोचक है। जानवरों के स्मारकों के रूप में सिकंदर के समय से ही अश्व की समाधियां बनती रही हैं। चाहे महाराणा प्रताप का अश्व चेटक ही क्यों न हो। अश्व विद्या पर भोज ने जिस शालिहोत्रम् की रचना की, वह संक्षिप्त किंतु गागर में सागर में भरने वाली कृति है। हालांकि अश्वपालन, अश्वशाला व अश्वों के आहार आदि पर भोज ने समरांगण सूत्रधार में भी पर्याप्त लिखा है, वह पहला ग्रंथ है जिसमें पहली बार संक्रमण से बीमारी होने की जानकारी दी गई है।
शालिहाेत्र में कुल 138 श्लोक हैं और ग्रंथकार ने अश्व पालन-पोषण, चिकित्सा आदि पर पर्याप्त रूप से जानकारी दी है। वह कहते हैं कि वर्णों के आधार पर श्वेत, लाल, पीले, सारंग, पिंग, नीले और काले घोड़े होते हैं किंतु उनमें सफेद अश्व श्रेष्ठ होता है - सितो रक्तस्तथा पीत: सारंग: पिंग एव च। नील: कृष्णोथ सर्वेषां श्वेत: श्रेष्ठतम:स् मृत:।।
इसके बाद घोडों की भंवरियां या आवर्त के बारे में लिखा गया है। अश्व की
ऊंचाई आदि के प्रमाण के बाद उनके वेग, उन पर आरोहण, श्लेष्म रक्तलक्षण
आदि की जानकारी दी गई है। रक्तमोक्षण में कहा गया है कि अश्वर के शरीर
में 72 हजार नाडियां होती है और उसके आठ द्वार होते हैं। भोज ने अश्व की
ऋतुचर्या को लिखने बाद शरद काल, हेमंत, शिशिर एवं वसंत कालीन रोगों की
चिकित्सा की जानकारी है। घोड़ों के नस्य, पिण्ड के क्रम में वे विजलिका
नामक औषधि का जिक्र करते हैं जो अश्वों को बल देने वाली है। इस ग्रंथ पर
प्राचीनकाल में नकुल के लिखे 'अश्वचिकित्स' ग्रंथ का पूरा प्रभाव है।
आज ग्रंथों को पढ़ते-पढते ही शालिहोत्र हाथ आ गया तो सोचा कि यह जानकारी आपको भी मिले। यूं भारतीयों के पास अश्व के संबंध में लगभग दो दर्जन ग्रंथ है, मगर आज उनमें से एकाध की जानकारी भी शायद ही हो। कभी अश्व विद्या का पठन-पाठन हर आम ओ खास के लिए आवश्यक होता था क्योंकि तब असवारी (सवारी) का मतलब भी 'अश्व-सवार' लिया जाता था। यातायात के लिए यह बेहतर सवारी थी।
शालिहोत्र अश्व का पर्याय है और युद्धोपयोगी इस पशु ने मानव की जो सहायता की, वह रोचक है। जानवरों के स्मारकों के रूप में सिकंदर के समय से ही अश्व की समाधियां बनती रही हैं। चाहे महाराणा प्रताप का अश्व चेटक ही क्यों न हो। अश्व विद्या पर भोज ने जिस शालिहोत्रम् की रचना की, वह संक्षिप्त किंतु गागर में सागर में भरने वाली कृति है। हालांकि अश्वपालन, अश्वशाला व अश्वों के आहार आदि पर भोज ने समरांगण सूत्रधार में भी पर्याप्त लिखा है, वह पहला ग्रंथ है जिसमें पहली बार संक्रमण से बीमारी होने की जानकारी दी गई है।
शालिहाेत्र में कुल 138 श्लोक हैं और ग्रंथकार ने अश्व पालन-पोषण, चिकित्सा आदि पर पर्याप्त रूप से जानकारी दी है। वह कहते हैं कि वर्णों के आधार पर श्वेत, लाल, पीले, सारंग, पिंग, नीले और काले घोड़े होते हैं किंतु उनमें सफेद अश्व श्रेष्ठ होता है - सितो रक्तस्तथा पीत: सारंग: पिंग एव च। नील: कृष्णोथ सर्वेषां श्वेत: श्रेष्ठतम:स्
आज ग्रंथों को पढ़ते-पढते ही शालिहोत्र हाथ आ गया तो सोचा कि यह जानकारी आपको भी मिले। यूं भारतीयों के पास अश्व के संबंध में लगभग दो दर्जन ग्रंथ है, मगर आज उनमें से एकाध की जानकारी भी शायद ही हो। कभी अश्व विद्या का पठन-पाठन हर आम ओ खास के लिए आवश्यक होता था क्योंकि तब असवारी (सवारी) का मतलब भी 'अश्व-सवार' लिया जाता था। यातायात के लिए यह बेहतर सवारी थी।
वैदिक परम्परागत विशेष ज्ञानाें में यह भी एक है।
जवाब देंहटाएंशालिहाेत्र, वृक्षायुर्वेद इत्यादि विज्ञानाें काे विश्वविद्यालयाें में भी अध्ययन अध्यापन का विषय बनाना अावश्यक है।
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