किले हमारे अतीत के गौरव हैं।
दुर्ग, द्वंद्व, गढ़, आदि भी इसके पर्याय हैं किंतु किले से मूल आशय था कि
जिस जगह को कील की तरह स्थिर कर दिया गया हो अथवा जहां से नजर रखी जा सके।
दुर्ग से आशय था जहां पहुंचना दुर्गम हो। गढ़ मूलत: गढने या बनाने का अर्थ
देता है। यह शब्द पश्चिम भारत में लोकप्रिय रहा, गुजरात और सिन्ध से लेकर
पेशावर तक गढ शब्द ख्यात रहा है। लोक में गढ़ी या गढ्ढी भी प्रचलन में
रहे। 15वीं सदी मे लिखित *'राजवल्लभ वास्तुशास्त्र ं', 'वास्तुमण्डनम ्'
आदि में गढ़ को ही संस्कृत रूप में काम में लिया गया है। दुर्ग को शक्ति
का साम्राज्य माना गया, प्राय: राजा जो खेतपति, खत्तिय से क्षत्रिय बना
है, यहां पर अपने चतुरंगिणी सैन्यबल को रखता, उसका नियंत्रण करता और
'खलूरिका' से उनका मुआयना करता। सैनिकों की सहायता के लिए कई शिल्पियों,
कारीगरों, जिनगरों आदि सेवादारों को वैसे ही रखा जाता था जैसे कि आज सेना
या पुलिस में रखा जाता है। यह सब राजाश्रयी वेतन अथवा जागीर को प्राप्त
करते थे और अपने को 'राज' से संबद्ध मानते। यह मान्यता कई कथा रूपों में
आज भी अनेक जातियों में प्रचलित है।
दुर्ग मुख्यत: सुरक्षा की जरूरत की खोज रहा है। शत्रुओं को जिस किसी भी तरह धोखे में रखने का ध्येय भी रहता था। ऋग्वेद आदि से विदित होता है कि इंद्र ने सुरक्षा के लिए पुरों का महत्व समझा और उसने स्वयं पुरों का ध्वंस किया। यही बात कालांतर में मेरू पर्वत को दुर्ग बनाकर देवताओं को सुरक्षित करने के रूप में पुराणों का विषय बनी। पुर, परिक्खा, काण्डवारियों, कपिशीर्षों वाले वप्र या दीवार, समुन्नत द्वार, हर्म्य-हवेलिया
चाणक्य के अर्थशास्त्र, उसी पर आधारित कामंदकीय नीतिसार, मनुस्मृति, देवीपुराण, मत्स्पुराण, रामायण, महाभारत, हरिवंश आदि में प्रारंभिक तौर पर दुर्गों का विस्तृत वर्णन क्या बताता है। राज्य सहित राजाओं के कुल की सुरक्षा के लिए एकानेक दुर्ग विधान से किलों को बनाने का वर्णन यह जाहिर करता है कि ये निर्माण राज्य की दृढता के परिचायक थे और इन्हीं की बदौलत कोई राजा दुर्गपति, दुर्गस्वामी या भूभुजा कहा जाता था। 'दुर्गानुसारेण स्वामि वा राट्' कहावत से ज्ञात होता है कि जिसके पास जितने दुर्ग, वह उतना ही बड़ा राजा या महाराजा। महाराणा कुंभा (1433-1568 ई.) ने 'दुर्गबत्तीसी'
प्रारंभ में लकड़ी के दुर्ग बनते थे जिनको शत्रुओं द्वारा जला दिए जाने का भय रहता था। अशोक के समय पत्थरों का प्रयोग आरंभ हुआ किंतु बालाथल जैसे पुरास्थलों पर जो ऊंचाई वाली प्राकार युक्त भवन रचनाएं मिली हैं, वे प्राचीन है। गुप्तकाल में दुर्गों का निर्माण अधिक रहा, कई बार इनको 'विजय स्कंधावार' के रूप में भी जाना गया जो जीते हुए किले होते थे या राजा के निवास या फिर छावनियां होती थीं। भोजराज ने तो राजा के प्रयाणकाल में विश्राम के दौरान डेरों को यह संज्ञा दी है किंतु उसने विवरण अर्थशास्त्र से ही ग्रहण किया है। सल्तनतकाल में दुर्गों के भेदन की विधियों का वर्णन मिलता है। साबात और सुरंग की विधि से दुर्गों को तोड़ने का जिक्र मुगलकाल में बहुधा मिलता है। इसी काल में दुर्ग जीतने का जिक्र ' कंगूरे खंडित करना' जैसे मुहावरे से दिया जाता था।
किलों की रचना में प्राकार को बहुत मोटा बनाया जाता था। आक्रमणों में इनके टूटने पर रातो रात निर्माण कर लिया जाता था। इनके साथ ही सह प्राकार हाेता था जिन पर सैनिक घूम सकते थे। मंजनिकों से पत्थर बरसा सकते थे। इसी का उपयोग बाद में तोपों को दागने के लिए किया गया जिनमें अंग्रेजों ने नवाचार किया। हालांकि इसका प्रारंभ मुगलों के काल में हो चुका था। दुर्गों के द्वार पर शत्रुओं की खोपडि़यां लटकाकर भय उत्पन्न करने का चलन भी इसी दौरान सामने आया जबकि पहले अर्गला भेदन को ही प्राथमिकता दी जाती थी। इसमें द्वार तोड़ने और उसके अंदर लगी पत्थर की आड़ी पट्टिकाओं को तोड़कर सेना का आवागमन निर्बाध कर दिया जाता था। ये पट्टिकाएं ही अर्गला कही जाती थी, हालांकि मूलत: इसका आशय द्वार के पीछे बंद करने के लिए लकड़ी या लोहे की पट्टिका से लिया जाता था...।
है न दुर्भेद्य दुर्गों का रोचक विवरण..... और हम कितना जानते हैं, केवल देखकर ही कल्पना कर लेते हैं। इनके साथ नरबलियों के प्रसंग भी कम नहीं जुड़े हैं, मगर क्यों है, कई सवाल हैं जो दुर्ग की दीवार की तरह भेदने बाकी हैं, तो बताइयेगा और अपने देखे दिखाए किसी दुर्ग के बारें में मुझे भी जरूर बताइयेगा। मेरे यहां तो चित्तौड़गढ़ 7वीं सदी में बना, आखिरी किला सज्जनगढ़ 1885 में बना, जबकि ईसापूर्व का बालाथल पुरास्थल मेरे बहुत ही निकट है... जय-जय।
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* राजवल्लभ वास्तुशास्त्र
*वास्तुमण्डनम ् (डॉ. श्रीकृष्ण जुगनू)
Nice post
जवाब देंहटाएंRAJASTHAN GK