शिल्प और स्थापत्य के प्रवर्तक के रूप में भगवान् विश्वकर्मा का
संदर्भ बहुत पुराने समय से भारतीय उपमहाद्वीप में ज्ञेय और प्रेय-ध्येय
रहा है। विश्वकर्मा को ग्रंथकर्ता मानकर अनेकानेक शिल्पकारों ने समय-समय
पर अनेक ग्रंथों को लिखा और स्वयं कोई श्रेय नहीं लिया। सारा ही श्रेय
सृष्टि के सौंदर्य और उपयोगी स्वरूप के रचयिता विश्वकर्मा को दिया।
उत्तरबौद़धकाल से ही शिल्पकारों के लिए वर्धकी या वढ़ढी संज्ञा का प्रयोग
होता आया है। 'मिलिन्दपन्हो '
में वर्णित शिल्पों में वढ़ढकी के योगदान और कामकाज की सुंदर चर्चा आई है
जो नक्शा बनाकर नगर नियोजन का कार्य करते थे। यह बहुत प्रामाणिक संदर्भ
है, इसी के आसपास सौंदरानंद, हरिवंश आदि में भी अष्टाष्टपद यानी चौंसठपद
वास्तु पूर्वक कपिलवस्तु और द्वारका के न्यास का संदर्भ आया है। हरिवंश
में वास्तु के देवता के रूप में विश्वकर्मा का स्मरण किया गया है...।
प्रभास के देववर्धकी विश्वकर्मा यानी सोमनाथ के शिल्पिकारों का संदर्भ मत्स्य, विष्णुआदि पुराणों में आया है जिनके महत्वपूर्ण योगदान के लिए उनकी परंपरा का स्मरण किया गया किंतु शिल्पग्रंथों में विश्वकर्मा को कभी शिव तो कभी विधाता का अंशीभूत कहा गया है। कहीं-कहीं समस्त सृष्टिरचना को ही विश्वकर्मीय कहा गया।
विश्वकर्मावतार , विश्वकर्मशास् त्र, विश्वकर्मसंहित ा, विश्वकर्माप्रक ाश, विश्वकर्मवास् तुशास्त्र, विश्वकर्मशिल् पशास्त्रम्,
विश्वकर्मीयम् आदि कई ग्रंथ है जिनमें विश्वकर्मीय परंपरा के शिल्पों
और शिल्पियों के लिए आवश्यक सूत्रों का गणितीय रूप में सम्यक परिपाक हुआ
है। इनमें कुछ का प्रकाशन हुआ है। समरांगण सूत्रधार, अपराजितपृच्छा आदि
ग्रंथों के प्रवक्ता विश्वकर्मा ही हैं। ये ग्रंथ भारतीय आवश्यकता के
अनुसार ही रचे गए हैं।
इन ग्रंथों का परिमाण और विस्तार इतना अधिक है कि यदि उनके पठन-पाठन की परंपरा शुरू की जाए तो बरस हो जाए। एक स्वतंत्र पाठ्यक्रम लागू किया जा सकता है। इसके बाद हमें पाश्चात्य पाठ्यक्रम के पढ़ने की जरूरत ही नहीं पड़े। यह ज्ञातव्य है कि यदि यह सामान्य विषय होता तो भारत के पास सैकड़ों की संख्या में शिल्प ग्रंथ नहीं होते। तंत्रों, यामलों व आगमों में सर्वाधिक विषय ही स्थापत्य शास्त्र के रूप में मिलता है। इस तरह से लाखों श्लोक मिलते हैं। मगर, उनको पढ़ा कितना गया। भवन की बढ़ती आवश्यकता के चलते कुकुरमुत्ते की तरह वास्तु के नाम पर किताबें बाजार में उतार दी गईं मगर मूल ग्रंथों की ओर ध्यान ही नहीं गया...।
विश्वकर्मा के चरित्र पर स्वतंत्र पुराण का प्रणयन हुआ। इस वर्ष 'महाविश्वकर्मप ुराण' का प्रकाशन मेरे लिए किसी उपलब्धि से कम नहीं है।
प्रभास के देववर्धकी विश्वकर्मा यानी सोमनाथ के शिल्पिकारों का संदर्भ मत्स्य, विष्णुआदि पुराणों में आया है जिनके महत्वपूर्ण योगदान के लिए उनकी परंपरा का स्मरण किया गया किंतु शिल्पग्रंथों में विश्वकर्मा को कभी शिव तो कभी विधाता का अंशीभूत कहा गया है। कहीं-कहीं समस्त सृष्टिरचना को ही विश्वकर्मीय कहा गया।
विश्वकर्मावतार
इन ग्रंथों का परिमाण और विस्तार इतना अधिक है कि यदि उनके पठन-पाठन की परंपरा शुरू की जाए तो बरस हो जाए। एक स्वतंत्र पाठ्यक्रम लागू किया जा सकता है। इसके बाद हमें पाश्चात्य पाठ्यक्रम के पढ़ने की जरूरत ही नहीं पड़े। यह ज्ञातव्य है कि यदि यह सामान्य विषय होता तो भारत के पास सैकड़ों की संख्या में शिल्प ग्रंथ नहीं होते। तंत्रों, यामलों व आगमों में सर्वाधिक विषय ही स्थापत्य शास्त्र के रूप में मिलता है। इस तरह से लाखों श्लोक मिलते हैं। मगर, उनको पढ़ा कितना गया। भवन की बढ़ती आवश्यकता के चलते कुकुरमुत्ते की तरह वास्तु के नाम पर किताबें बाजार में उतार दी गईं मगर मूल ग्रंथों की ओर ध्यान ही नहीं गया...।
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