बुधवार, 24 दिसंबर 2014

ताम्रपत्र - जिसमें समाधि के लिए भूमिदान का जिक्र है



उदयपुर के महाराणा जवानसिंह ने जून, 1837 ई. तद्नुसार विक्रम संवत 1894 के आषाढ़ कृष्‍णा 9 के दिन उदयपुर में जाडा गणेश मंदिर के पास एक शैव साध्‍वी मेणापुरी की समाधि के लिए वाटिका की भूमि का दान किया था। इस वाटिका में समाधि के लिए निर्माण कार्य करने की अनुमति भी दी गई है। यह साध्‍वी गोस्‍वामी सुखदेव गिरि की शिष्‍या थी। इस साध्‍वी की ख्‍याति तब माताजी के रूप में थी। इस आशय का ताम्रपत्र जा‍री किया गया था।
संयोग से यह तामपत्र पिछले महीनों अहमदाबाद में बिक्री के लिए लाया गया था तब श्रीराजदीपसिंह ने उसकी तस्‍वीर ले ली थी और इसको 'इस्‍ट देश झालावाड' ने मुझे पढ़ने के लिए भेजा। मैं इसके लिए आभारी हूं कि एक इतिहास की धरोहर का पढ़ने का अवसर मिला है।

कुल चौदह पंक्तियों वाले इस ताम्रानुशासन का संपूर्ण पाठ इस प्रकार है -


 श्रीगणेशाय जी। श्रीएकलिंगजी प्रासादात्।
(भाले का तीरनुमा चिन्‍ह)
सही
।। महाराजाधिराज महाराणा श्रीजवानसि
घजी आदेशातु'-
माताजी श्री मेणापुरीजी चेला सुखदेवगर कस्‍य-
श्री जाड़ा गुणेशजी री वाडी थी गुसाई माहाराज थी जवीं लेने या वाडी
श्रीमाताजी रे समाद (समाधि) लेवा सारूं भेंट कर न तांबापतर कर
लाग-वलगत रूख कुवा नवाण नीम सीम सुदी उदक आघाट श्री रामा अरपण
करे दीदी है सो माताजी री वाडी में समाद दीजो ने काम कमठाणो कराव जो
थां सूं कणी वात री चोलण वेगा नहीं
स्‍वदत्‍त परदत्‍ता वाय हरंती वसुंधरा,
षष्टि वर्णाणि विष्‍टायां जायंते करमी (कृमि)।
प्रतिदुवे पंचोली कसन लिखाता पंचोली सुरथसिंह जा...मोती।
संवत 1894 आसाड वीद 9

(इस सूचना के लिए मैं Est Desh Jhalavad का आभारी हूं)

यह ताम्रपत्र मेवाडी भाषा में लिखा गया है... इसका अनुवाद इस प्रकार है-

महाराजाधिराज महाराणा श्रीजवानसिंह माताजी श्रीमेनापुरी शिष्‍य सुखदेवगिरि के प्रति आदेश करते हैं कि श्रीजाड़ा गणेश मंदिर की वाटिका के गोस्‍वामी महाराज से भूमि लेकर श्रीमाताजी के स‍माधि लेने के लिए भेंट की जा रही है। इसी अर्थ में यह पक्‍का ताम्रपत्र लिखा जा रहा है। इस भूमि की लागत, विलगत, पेड़-पौधे, इसकी नींव, सीमा सभी कुछ जलां‍जलि पूर्वक देकर रामार्पित की गई है। यह श्रीमाताजी की वाटिका कही जाएगी। इसमें उनको समाधि दी जा सकती है। उस समाधि पर निर्माण कार्य करवाया जा सकता है। इसके लिए आपसे किसी भी तरह की अतिक्रमिता नहीं होगी। यह भूमि स्‍वदत्‍त है, परदत्‍त है, यदि कोई इस भूमि का हरण करता है तो वह साठ हजार सालों तक मल का कृमि बनेगा। इस लेख की साक्षी पंचोली कसनलाल ने दी है जो पंचोली सुरथसिंह के परिवार का है। यह ताम्रपत्र विक्रम संवत 1894 के आषाढ़ मास की नवमी तिथि को जारी किया गया।

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