बॉल हमारी बहुत जानी पहचानी
है। बॉल यानी गोल, गोल यानी बॉल। दादी-दादा खेले। माता-पिता खेले। हम खेले
और हमारे बाद बेटी-बेटे। बॉल सबकी प्रिय से भी प्रिय है। कई खेलों का आधार
है बॉल। यदि बॉल है तो खेल है, बस हाथ में आ जाए तो खेलने की तरकीब हम ढूंढ
ही लेते हैं। बॉल पकड़ी जाती है। फेंकी जाती है। उछाली और झेली जाती है।
धकेली तथा चलाई भी जाती है... इस बॉल ने हर सभ्यता और संस्कृति में अपनी
मौजूदगी दिखाई है, चाहे माया जैसी सभ्यता ही क्यों न हो, जिसकी तस्वीर
मिली है। अन्यत्र उत्खननों में साबुत बॉलें मिली हैं....। नाम तो है इसका
गेंद या गेंदू मगर संस्कृत में कन्दुक कहा जाता है। यह 'क' हमारे
मुखलाघव के लिए 'ग' में बदल गया है, वैसे ही जैसे प्रकट को प्रगट बोलने में
सहुलियत होती है, कुछ नियमों के तहत प्राक् भी प्राग् हो जाता है..।
नींबू, नारियल, कपित्थ या कबिती और बेल जैसे किसी फल को देखकर बॉल का निर्माण किया गया होगा। बात गेंद की हो रही है। उत्खननों, खासकर हड़प्पाकालीन कानमेर-गुजरात याद आता है जहां बजने वाले गेंद भी मिले हैं..। कहीं दौड़ लगवाने वाली होने से इसका नाम दोड़ी या दड़ी पड़ गया तो कहीं डोट या पीटने वाली होने से डोट कहलाई...।
यो तो बालकों को यह बहुत रुचिकर लगती है। हरिवंश में श्रीकृष्ण के कंदुक खेल पर तो कई श्लोक मिल जाते है, उसको खोजने की आड़ में कालिया नाथ लिया गया...। नारियों ने भी गेंदों की कई क्रीड़ाएं दिखाई हैं तभी तो 'मूंछों पर नींबू ठहराने' जैसी कहावत की तरह 'कूर्पर (कोहनी) पर कंदुक दिखाना' जैसी कहावत भी रही होगी। क्यों नहीं, कुषाणकालीन एक वेदिका स्तंभ पर ऐसा मोटिफ भी है, जिसमें नायिका अपनी कोहनी पर कंदुक को लिए कौतुक रच रही है।
मृच्छकटिकं के रचयिता शूद्रक जैसे रचनाकार को यह खेल इतना भाया कि अपने एक भाण में उन्होंने विट के मुंह से इसकी प्रशंसा करवाई कि इस खेल में शरीर की कई क्रियाएं संपन्न होती हैं। इन अंग संचालनों में नत, उन्नत, आवर्तन, उत्पतन, अपसर्पण, प्रधावन वगैरह वगैरह। विट स्वयं इन संचालनों को पसंद करता था। उसने सखी-सहेलियों के साथ प्रियंगुयष्टिका
नामक एक नायिका की कंदुक क्रीड़ा का वर्णन करते हुए सौ बार गेंद उछालने पर
जीतकर खिताब लेने का संदर्भ दिया है... गुप्तकाल की यह दास्तान है।
अनेकानेक मंदिरों में यह क्रीड़ा अनेकत्र देखी जा सकती है। ऐसी नायिकाओं को
'कंदुकक्रीड़ाकर ्त्री' के रूप में शिल्पशास्त्रो ं में जाना गया है।
है न नन्हीं सी गेंद की गौरवशाली गाथा...।
नींबू, नारियल, कपित्थ या कबिती और बेल जैसे किसी फल को देखकर बॉल का निर्माण किया गया होगा। बात गेंद की हो रही है। उत्खननों, खासकर हड़प्पाकालीन कानमेर-गुजरात याद आता है जहां बजने वाले गेंद भी मिले हैं..। कहीं दौड़ लगवाने वाली होने से इसका नाम दोड़ी या दड़ी पड़ गया तो कहीं डोट या पीटने वाली होने से डोट कहलाई...।
यो तो बालकों को यह बहुत रुचिकर लगती है। हरिवंश में श्रीकृष्ण के कंदुक खेल पर तो कई श्लोक मिल जाते है, उसको खोजने की आड़ में कालिया नाथ लिया गया...। नारियों ने भी गेंदों की कई क्रीड़ाएं दिखाई हैं तभी तो 'मूंछों पर नींबू ठहराने' जैसी कहावत की तरह 'कूर्पर (कोहनी) पर कंदुक दिखाना' जैसी कहावत भी रही होगी। क्यों नहीं, कुषाणकालीन एक वेदिका स्तंभ पर ऐसा मोटिफ भी है, जिसमें नायिका अपनी कोहनी पर कंदुक को लिए कौतुक रच रही है।
मृच्छकटिकं के रचयिता शूद्रक जैसे रचनाकार को यह खेल इतना भाया कि अपने एक भाण में उन्होंने विट के मुंह से इसकी प्रशंसा करवाई कि इस खेल में शरीर की कई क्रियाएं संपन्न होती हैं। इन अंग संचालनों में नत, उन्नत, आवर्तन, उत्पतन, अपसर्पण, प्रधावन वगैरह वगैरह। विट स्वयं इन संचालनों को पसंद करता था। उसने सखी-सहेलियों के साथ प्रियंगुयष्टिका
है न नन्हीं सी गेंद की गौरवशाली गाथा...।